व्यक्त-अव्यक्त

डॉ० पृथ्वीनाथ पाण्डेय


एक : जीव-जगत् है पाप में, स्वार्थ यत्र-तत्र-सर्वत्र।
धरणीधर नेपथ्य में, कान्ता कन्त कलत्र।।
दो : निशि-दिवा-सी घूम रही, घर-घर विपदा आज।
सम्मान निरापद कहाँ, पूर्ण न होता काज।।
तीन : कंकणी कंकण कर, कामिनी कंकती केश।
कंचुक कंचन कंचनी, मंजुल मनहर वेश।।
चार : चन्द्र चन्द्रिका चम्पई, चंचल चितवन चोर।
मुदित मंगला-मंगली, मंजु मनोहर भोर।।


काल के कपोलों पर,
अप्रत्याशित शैली में
जैसे ही मैंने अधरों से हस्ताक्षर किये,
वह संन्यस्त-सा भाव लिये बोला,
“तुमने भेद जिया का क्यों खोला।”
मेरा मन डोला पर कुछ नहीं बोला।