एक स्वछन्द अभिव्यक्ति

★ आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय

एक–
बनता-मिटता चित्र यहाँ, जीवन बन अभिशाप।
मीठे फल सब चख रहे, बनकर के निष्पाप।।
दो–
भाँति-भाँति-जन हैं यहाँ, चतुर-चोर-चालाक।
वाणी कोयल कूकती, मन से दिखते काक।।
तीन–
मन से दिखते दीन हैं, तन से स्वस्थ-मलंग।
देश को विकृत कर रहे, गिरगिट-जैसे रंग।।
चार–
भाँप-भाँप कर पाँव रख, आगे बढ़ते डग।
संकट-मोचन है नहीं, है विषम तल पर पग।।
(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; २८ जनवरी, २०२१ ईसवी।)