सन्त, साधु, योगी आदिक राजनीति में लिप्त नहीं होते

 

डॉ० पृथ्वीनाथ पाण्डेय
(प्रख्यात भाषाविद्-समीक्षक)

डॉ० पृथ्वीनाथ पाण्डेय


सुर-सुरा-सुन्दरी में निमग्न ‘हिन्दू-संस्कृति’ के पोषण करने के नाम पर ख्यात-सुख्यात-कुख्यात बाबाओं की एक ऐसी श्रृंखला छनक-छनक कर सामने आने लगी है, जो ‘भूमिगत’ शैली में निर्दोष भावना-संवेदना के साथ क्रूर छल करते हुए, अपनी नितान्त निन्दनीय और अति कलुषित ‘बाबागिरी’ का प्रदर्शन करते आ रहे हैं।

पौराणिक ग्रन्थ इस सत्य को प्रकाशित करते आ रहे हैं कि स्वयं को साधु, सन्त, योगी कहनेवाले जन कभी भौतिक प्रपंच में नहीं पड़ा करते; जैसे ही उस प्रकार का विचार तक मन-मस्तिष्क में कौंधा, उनकी चिर-संचित साधना स्खलित हो जाती है। यही कारण है कि पहले के साधु, सन्त, योगी इत्यादिक कभी राजसी आकर्षण के समक्ष नतमस्तक नहीं हुए। सम्पूर्ण लोक में उनका अग्रगण्य स्थान हुआ करता था।

यह कलियुग है और युगसापेक्ष सत्य सर्वत्र झाँक रहा है और लोकमानस को बाध्य कर रहा है कि वह सत्य का अनावरण करता रहे, ताकि वह जिसे ‘सत्य’ समझता है; अपनी आस्था के रूप में जिसकी आराधना करता है, उसके साथ साक्षात् कर सके।

साधु, सन्त, योगी आदिक सात्त्विक होते हैं; कर्मयोग का अध्ययन, अनुशीलन, परिशीलन कर, अपने हेतु की सिद्धि के लिए उपासना करते हैं; प्राणिमात्र के लिए “सर्वे भवन्तु सुखिन:” की अभ्यर्थना करते हैं।