पण्डित प्रभात शास्त्री की एक सौ छ:वीँ जन्मतिथि (२७ मई) पर विशेष
इलाहाबाद और प्रयागराज पाण्डित्य का पोषण करता आ रहा है। यहाँ एक से बढ़कर विद्वान् की परम्परा रही है, जो वाचन और सर्जन (‘सृजन’ अशुद्ध है।)-स्तर पर आध्यात्मिक भूभाग प्रयागराज को धन्य करती आ रही है। उनमे कल-कल, छल-छल निनादिनी गंगातट पर अवस्थित दारागंज मे एक संस्कृत-साधक रहा करते थे, जिनका नाम प्रभात शास्त्री था। उनका संस्कृत-भाषा, साहित्य तथा व्याकरण पर पूर्ण अधिकार के साथ-साथ हिन्दीभाषा के उत्थान मे विशेष योगदान रहा, जिसका परिणाम रहा कि १९१० ई० मे ‘हिन्दी साहित्य सम्मेलन’ प्रयाग की स्थापना के पश्चात् पं० प्रभात शास्त्री ‘हिन्दी के महाप्राण’ कहे जानेवाले राजर्षि पुरुषोत्तमदास टण्डन के सान्निध्य मे आकर सम्मेलन के साथ आ जुड़े और प्रचारमन्त्री के रूप मे हिन्दी के उन्नयन मे योगदान करते हुए, देश के कई प्रान्तोँ मे सम्मेलन की शाखा-प्रशाखाओँ का विस्तार करने लगे। उनका हिन्दी के प्रति निष्ठा और कौशलबोध का ही परिणाम था कि वे सम्मेलन के आजीवन प्रधानमन्त्री बने रहे।
ज्ञानगांगीय संस्कृति की परम्परावाले परिवार मे जन्म लेने के कारण उनकी आरम्भिक शिक्षा दारागंज-स्थित संस्कृत-पाठशाला मे हुई थी तथा उच्चशिक्षा ज्ञानोपदेश संस्कृत महाविद्यालय मे सम्पन्न हुई थी, जहाँ से उन्होँने प्रथम श्रेणी मे ‘साहित्याचार्य’ की उपाधि अर्जित की थी और कालान्तर मे, उन्होँने सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी से ‘अध्यात्म रामायण’ पर ‘वाचस्पति’ (डी० लिट्०) की उपाधि प्राप्त की थी।
पं० प्रभात शास्त्री के पुत्र और हिन्दी साहित्य सम्मेलन के संरक्षक विभूति मिश्र ने बताया, “बाबू जी ने कई संस्कृत-पुस्तकोँ के प्रणयन और ग्रन्थोँ के अनुवाद किये थे। उन्होँने संस्कृत-भाषा और साहित्य को समृद्ध करने मे अपना महत् योगदान किया था और आजीवन सम्मेलन के विकास मे प्राणपण (‘प्राणप्रण’ अशुद्ध है।) से योगदान करते रहे।”
भाषाविज्ञानी आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय ने कहा, “पण्डित प्रभात शास्त्री अनुवाद और सम्पादनकला मे दक्ष थे। ‘रागविमर्शम्’, ‘गीतगिरीशम्’, ‘लिंगानुशासनम्’, ‘कृष्णगीतम्’, ‘संगीतरघुनन्दनम्’ इत्यादिक ग्रन्थ उनके द्वारा सम्पादित और अनूदित थे। वे ‘संगमनी’ नामक त्रैमासिकी संस्कृत-पत्रिका का सम्पादन भी करते थे।”
पं० प्रभात शास्त्री के पौत्र एवं सम्मेलन के वर्तमान प्रधानमन्त्री कुन्तक मिश्र ने बताया, “शास्त्री जी के संस्कृत-साहित्य मे उनके लेखन को ‘नवलेखन’ की संज्ञा दी जा सकती है। उन्हेँ तत्कालीन मानव संसाधन मन्त्रालय की ओर से ‘शास्त्रचूडामणि अध्येतावृत्ति’ तथा तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ० शंकरदयाल शर्मा ने ‘राष्ट्रपति-सम्मान’ से आभूषित किया था।”