अध्यापक, आलोचक, सम्पादक तथा साहित्यकार आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने यद्यपि ‘दुबे छपरा’, बलिया मे जन्म लिया था; काशी हिन्दू विश्वविद्यालय (वाराणसी), शान्ति निकेतन (कलकत्ता) तथा पंजाब विश्वविद्यालय को अपने कर्मस्थल बनाये थे तथापि इलाहाबाद के साथ उनका अन्योन्याश्रित सम्बन्ध था। इसके तीन कारण थे :– पहला, हिन्दी साहित्य सम्मेलन; दूसरा, प्रकाशन-प्रतिष्ठान तथा तीसरा, इलाहाबाद विश्वविद्यालय। साठ के दशक मे आचार्य द्विवेदी का हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग मे महनीय सारस्वत स्थान था।१९६५ ई० मे उन्हेँ ‘हिन्दी साहित्य सम्मेलन’ प्रयाग की ओर से ‘साहित्यवाचस्पति’ उपाधि से विभूषित किया गया था। सम्मेलन के बौद्धिक आयोजनो मे उनकी विशिष्ट भागीदारी होती थी। प्रकाशन-प्रतिष्ठान की दृष्टि से उन दिनो इलाहाबाद के ‘लोकभारती’ और ‘साहित्यभवन’ की उन्नत स्थिति थी। आचार्य की निबन्धात्मक कृतियाँ ‘अशोक के फूल’ और ‘विचार और वितर्क’ क्रमश: यहीँ से प्रकाशित की गयी थीँ। आगे चलकर, उन पर अनेक सम्पादित कृतियाँ सार्वजनिक हुई थीँ, जिनमें से डॉ० राममूर्ति त्रिपाठी और चौथीराम यादव-द्वारा क्रमश: सम्पादित पुस्तकेँ :–’साहित्यकार और चिन्तक आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी और ‘हजारी प्रसाद द्विवेदी : समग्र पुनरावलोकन’ हिन्दुस्तानी एकेडेमी और लोकभारती से प्रकाशित किये गये थे।
उन दिनो इलाहाबाद विश्वविद्यालय का हिन्दी-विभाग सारस्वत सम्पदा से परिपूर्ण था, तब अधिकतर अध्यापक अपने मूल कर्त्तव्य के प्रति निष्ठावान और योग्य हुआ करते थे। प्राय: हिन्दी-विभाग की ओर से आयोजित मौखिक परीक्षाओँ मे परीक्षक के रूप मे आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी को निमन्त्रित किया जाता था।
इसी संदर्भ मे ‘सर्जनपीठ’ की ओर से कल ‘सारस्वत सदन’, अलोपीबाग़, प्रयागराज से एक आन्तर्जालिक बौद्धिक परिसंवाद का आयोजन किया गया था, जिसमे भाषाविज्ञानी एवं समीक्षक आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय ने आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी से सम्बन्धित एक रोचक संस्मरण सुनाया था, “आचार्य द्विवेदी जी इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिन्दी-विभाग मे एम०ए० की मौखिक परीक्षा ले रहे थे। एक छात्रा का नाम पुकारा गया था। वह रूपवती छात्रा मौखिक परीक्षाकक्ष मे पहुँची। पण्डित द्विवेदी ने उस छात्रा से प्रश्न किया था, “एकांकी किसे कहते हैँ?” उस छात्रा ने बेहिचक उत्तर दिया था, “सर जी! एकांकी-काल सुन्दरी के सुन्दर कपोलोँ पर एक मधुर चुम्बन है।” उसका उत्तर सुनकर आचार्य जी का मस्तक झुक गया। उन्होँने उसी समय उस छात्रा से कहा, “अब तुम जाओ।” उस छात्रा के जाने के बाद पं० द्विवेदी जी ने दु:खी मन से अपने बगल मे बैठे डॉ० रामकुमार वर्मा से पूछा, “ये क्या तमाशा है? इससे एकांकी का क्या पता चलता है?” इस पर डॉ० वर्मा ने संकोच और गर्व-मिश्रित शैली मे उत्तर दिया था, “पण्डित जी! यह मेरी ही परिभाषा है, जो मैने लिखवायी है, वही बच्ची ने बताया है।” इस पर पण्डित जी ने अप्रसन्न होते हुए कहा, “मेरी चिन्ता का विषय यह नहीँ है कि किसकी परिभाषा है। मेरी चिन्ता का विषय है कि एक अंक का छोटा एकांकी काल-सुन्दरी के सुन्दर कपोलोँ पर अगर एक चुम्बन है तो सात अंकोँ का नाटक उस काल-सुन्दरी के साथ क्या होगा?” इस पर डॉ० वर्मा ने ग्लानि का अनुभव किया था।”
डॉ० स्मिता टण्डन ने कहा, ”आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने एक बार कहा था कि आलोचना की भाषा को काव्य की भाषा-शैली मे लिखने से आलोचना का ‘अनर्थ’ होता है, जो कि आज दिख रहा है। आचार्य एक आदर्श आलोचक थे और कुशल निबन्धकार भी।
डॉ० वात्सल्य द्विवेदी, राधामोहन सक्सेना, दीप्ति यादव, डॉ० सुशीला उपाध्याय ने आचार्य द्विवेदी को एक गम्भीर चिन्तक और समीक्षक बताया।