पुण्य और प्रेम

पुण्य और प्रेम
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परोपकार तो पुण्य करवाता है प्रेम नहीं।
पर (पराया) का उपकार ही पुण्य है।
पर का स्वीकार ही प्रेम है।
जब तक कोई पराया जैसा अनुभव हो तब तक प्रेम कहाँ..?
पराए जब अपने लगें तभी प्रेम सिद्ध होता है।
तब उपकार कैसा, मदद कैसी..?
उपकार तो पुण्यात्मा लोग करते हैं अपना पाप धोने के लिए।

प्रेम जागने पर तो अपने प्रियजनों के लिए ही श्वांस चलती है उन्ही के लिए जीते और मरते है।

जिसको जिस किसी से भी वास्तविक प्रेम हो जाता है वह उसी के लिए जीता और मरता है।

यह प्रेम ही मनुष्य को संकीर्ण से विस्तीर्ण बनाता है।
स्वयं का विसर्जन ही प्रेम है।
अहंकार का विलय ही प्रेम है।

इसीलिए प्रेम में ‘मैं-तू’ का संघर्ष और विरोध नहीं बचता है।
प्रेमगली अति सांकरी जा में दो न समाहिं।
जब तक कोई पराया जैसा अनुभव हो तब तक प्रेम कहाँ..?
जब तक हृदय प्रदेश में,
स्व-पर का संघर्ष।
तब तक हो सकता नहीं,
शुद्ध प्रेम उत्कर्ष।।

क्योंकि पराई आत्मा ही परमात्मा है।
‘स्व’ जीव है।
‘पर’ ब्रह्म है।
‘स्व’ का ‘पर’ से संयोग ही ‘प्रेम’ है।
जब तक ‘स्व’ किसी भी ‘पर’ से भिन्न है तब तक ही दम्भ है, द्वंद्व है, संघर्ष है।

‘स्वयं’ को ‘परम’ से जोड़ते ही सब द्वंद्व मिट जाता है सब संघर्ष समाप्त हो जाता है।

‘स्व’ और ‘पर’ के बीच जो द्वैतबोध है वही सब प्रकार के संघर्ष उत्पन्न करता है।

‘स्वात्मा’ को ‘परमात्मा’ से जोड़ दो तो दूसरों के प्रति प्रेम उत्पन्न हो जाता है, द्वेष मिट जाता है।
स्वयं को जो दूसरों से भिन्न जानता और मानता और जीता है वह द्वेष से भर जाता है।
द्वेष ही मनुष्य के हृदय में प्रेम को जन्म नहीं लेने देता।
प्रेम ही सुख है आनन्द है मस्ती है महिमा है।
प्रेम के बिना मनुष्य के दु:खों का कोई अंत नहीं।
प्रेम ही सुख और शांति का द्वार खोलता है।

रूपांतरण
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जो जिससे वास्तव में प्रेम करता है, वह वही हो जाता है।

प्रेम का यह गुणधर्म ही है कि प्रेम जिससे भी होगा उसी के रंग में स्वयं को रंग लेगा।

प्रेमसंबंध क्रमशः चार सीढ़ियों में ऊपर शिखर तक चढ़ता है-
परिचय,
मैत्री,
भक्ति,
समर्पण।

यही प्रेमसंबंधो की चतुश्चरणीय विकासयात्रा है जो समर्पण पर पहुचकर पूर्णता को प्राप्त होती है।

सत्साहस के बिना ये संबंधो की यात्रा सम्भव नहीं।
संवेदना के बिना यह सत्साहस का विकास सम्भव नहीं।

सच्चा प्रेम करने वाले लोग रूपांतरित अवश्य हो जायेंगे।
जो जैसा चाहता है, वह वैसा ही हो जाता है।
चाहत ही परिवर्तन लाती है।
जहां चाह वहां राह…!!!

मनुष्य का प्रेम ही उसका प्रेरक होता है।

अनुशासन, अनुगमन, अनुरक्ति और भक्ति का उदय मनुष्य के ह्रदय में प्रेम की मात्रा पर ही निर्भर है।

आदर्शवाद प्रेम से ही उत्पन्न हुआ है।
सत्य की उपलब्धि का आधार प्रेम ही है।

सद्भाव ही प्रेम है।
सद्गुण ही सद्भाव को जगाता है।
सत्य ही भगवान है।
प्रेम ही भक्ति है।

कर्तव्य करुणावश होता है श्रद्धावश नहीं।
संवेदनशीलता तो प्रेम का प्रथम चरण है।
जो मनुष्य को करुणावान बनाती है, दयावान बनाती है।

रूपांतरण तो भक्ति से प्रारम्भ होता है, समर्पण से पूर्ण होता है।
प्रेम के विकास के क्रमशः चार चरण हैं-
संवेदना, साहस, श्रद्धा, सद्वृत्ति।

समर्पण अत्यन्तिम साहस है।
समर्पण के बिना श्रद्धा व्यर्थ होती है।

जो जितना समर्पित है उतना ही श्रद्धालु होता है।
और जितना श्रद्धा होती है उतना ही किसी को धारण कर पाता है।
और जो जितना धारण कर पाता है उतना ही रूपांतरित होता है।
रूपांतरण से ही स्वभाव बनता है स्वरूप रचता है।
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—(राम गुप्ता – स्वतंत्र पत्रकार – नोएडा)