कोरोनाकाल-व्यवस्था पर गम्भीर सवाल?

आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय

‘मुक्त मीडिया’ का ‘आज’ का सम्पादकीय

— आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय

देश की प्रमुख राजनीतिक पार्टी भारतीय जनता पार्टी और जिसकी अपनी घोषित सरकार है, इस समय ‘वर्चुअल राजनैतिक रैली करने में व्यस्त हो चुकी है। आश्चर्य! गृहमन्त्री अमित शाह, जो कोरोना के चरम काल में मौन थे; घर से बाहर ही नहीं निकलते थे; अटकलें लगायी लगायी जा रही थीं, कहीं कोरोना की चपेट में तो नहीं आ गये? अब अचानक चुनावी रैली में जुट गये हैं? यह है, भारतीय जनता पार्टी का मूल चरित्र। इस समय देश ‘कोविड-१९’ विषाणु के संक्रमण से बुरी तरह से ग्रस्त है; भारत में संक्रमण से ग्रस्त जनता की संख्या तीन लाख से ऊपर पहुँच चुकी है तथा चार माह के भीतर हज़ारों देशवासियों की मृत्यु हो चुकी है। इसके बाद भी देश में निर्लज्ज राजनीति का बाज़ार गरम है। इससे सुस्पष्ट हो जाता है कि देश की वर्तमान सरकार में काम करनेवाले लोग सियासत बनाये रखने के लिए अपना-अपना तवा गरम करके सियासत की रोटियाँ पका रहे हैं और ‘सोसल डिस्टेंसी’, ‘क्वाराण्टाइन’, ‘सैनिटाइज़ेशन’ की आँच पर ‘सेंक’ रहे हैं। अब ये सब कुछ ‘कल’ के विषय हो चुके हैं। ऐसे में, देश के नेतृत्व पर ‘अविश्वास का अमिट’ दाग़ लग चुका है।
केन्द्र-शासन में दो-चार ही लोग हैं, जो ‘देश’ को अपनी जागीर समझ बैठे हैं। इतना ही नहीं, एक व्यक्ति ऐसा है, जो स्वयं को केन्द्र और भारत-सरकार का पर्याय मानता है; और वह है, नरेन्द्र मोदी। अपने संकुचित स्वार्थ के लिए नरेन्द्र मोदी ने देश के लोकतन्त्र की समूची तस्वीर ही बदल डाली है। जिस तरह से ‘आरक्षण’ का चारा फेंककर, धर्म की ‘अफ़ीम’ खिलाकर तथा बौद्धिक वर्ग के सामने ‘अवसर’ के टुकड़े फेंककर ‘पालतू’ बनाते हुए, देश को कई टुकड़ों में विभाजित करते हुए, भारतीय समाज को कमज़ोर और रोगग्रस्त कर दिया है, उसी तरह से के समस्त विपक्षी दलों को उनकी कमज़ोरियों पर प्रहार कर और रिश्वत देकर, मोल लगाकर ख़रीदने का उपक्रम आरम्भ किया है। अब देश का लोकतन्त्र ‘नरेन्द्र मोदी की प्रयोगशाला’ बन चुका है, जो सदियों से चली आ रही चर्चित कहावत को बदलकर ‘लोकतन्त्र सत्ता का, सत्ता के लिए, सत्ता के द्वारा’ बन चुकी है।

दिल्ली, बंगाल, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, जम्मू-कश्मीर, आन्ध्रप्रदेश, गुजरात, मध्यप्रदेश तथा उत्तरप्रदेश राज्य इस समय ‘कोविड-१९’ से इस तरह से संक्रमित हो चुके हैं कि स्वास्थ्य-परीक्षण और चिकित्सा-व्यवस्था पर अमिट प्रश्नचिह्न लग चुके हैं। राज्य-सरकारें, विशेषत: केन्द्र की सरकार पूरी तरह से पंगु दिख रही हैं। उसके भीतर साहस नहीं है कि वह दृढ़ इच्छाशक्ति के साथ कोविड-विषाणु से ग्रस्त जनता के लिए समुचित उपचार की व्यवस्था करे तथा सह-अनुभूति और सम-अनुभूति के साथ पारदर्शी आचरण प्रस्तुत करते हुए, सभी राज्यों की उचित माँगों की पूर्ति करे; परन्तु राज्यों को ‘भारतीय जनता पार्टी, ‘काँग्रेस’ तथा ‘आम आदमी पार्टी’ के रूप में ख़ानों में बाँटकर देखा जा रहा है और कमियों के आधार पर पक्षपाती रहकर निन्दा कर ‘वोट की राजनीति’ की जा रही है। इसे समस्त ‘लॉक-डाउन’ की कार्यपद्धति और ‘अनलॉक’ के चरित्र का अध्ययन कर आसानी से समझा जा सकता है।

भुखमरी के कगार पर पहुँचे लोग अपने घर लौट आना चाहते थे। सरकारी घोषणाएँ की जाती रहीं कि उन्हें भोजन-पानी दिया जायेगा; शरणालय में रहने की व्यवस्था की जायेगी; अन्तत:, क्या हुआ? देश के प्रवासी श्रमिकों पर लाठियाँ बरसायी गयीं; देश के अनेक हिस्सों में पुलिस-बर्बरता स्पष्टत: दिखायी दी। ‘मातृशक्ति’ की उपाधि की उपेक्षा करते हुए गर्भवती महिलाओं को सैकड़ों किलोमीटर पैदल चलने के लिए विवश किया गया। आबाल वृद्ध नर-नारियों की भीड़ अपनी गृहस्थी के सामान सिर, कन्धों और कलाइयों में टाँगे चहुँदिशि यों दिख रही थी, मानो आज़ादी के बाद ‘भारत और न्यूइण्डिया’ का बँटवारा हो गया हो; सभी अपने-अपने ठिकाने की ओर रोते-बिलखते सरकार को कोसते बढ़ रहे हों।
उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशगण सरकार की पक्षपातपूर्ण रवय्या को धिक्कारते-धिक्कारते थक चुके हैं। इतना ही नहीं, विषाणु-संक्रमित लोग की उपचार और देख-रेख, भोजन आदिक व्यवस्था पर लगातार प्रश्नचिह्न लगाते आ रहे हैं, जबकि देशवासियों पर हुक़्म चलानेवाले संवेदनहीन दिख रहे हैं।

इस सच्चाई से इंकार नहीं किया जा सकता कि कोविड विषाणुग्रस्त सभी राज्य अपने यहाँ की बदसूरती को छुपाने का प्रयास करते आ रहे हैं। यदि समूचे देश में पारदर्शिता के साथ कोरोनारोगियों की गणना की गयी रहती तो आज की तारीख़ में उनकी संख्या आज लगभग २५ लाख पहुँची होती। केन्द्र और राज्य-सरकारें जितनी भी कोशिशें कर लें; परन्तु वहाँ की सरकारों के पापकृत्य सिर चढ़कर बोल रहे हैं। सच तो यह है कि देश का ऐसा कोई भी राज्य ऐसा नहीं है, जो कोरोनारोगियों की संख्या घटा कर न बता रहा हो। सभी राज्यों के चिकित्सालयों में बदतर व्यवस्था है। शवों के साथ निर्मम व्यवहार किया जा रहा है। कूड़ा-कचरा ढोनेवाली गाड़ी में देश की जनता के शवों को रखकर फेंक दिया जा रहा है; शवों को घसीट कर बाहर ले जाया जा रहा है, जहाँ ख़ूँख़्वार जानवर और पक्षी उन शवों के रूप बीभत्स कर दे रहे हैं। इतना ही नहीं, कँटियों में फँसाकर शवों को बाहर फेंककर सम्बन्धित कर्मचारी अपने कर्त्तव्य की ‘इतिश्री’ करते दिख रहे हैं। शवों को नालों में फेंक दिया जा रहा है। इतना सब होने के बाद भी देश का मुखिया और वहाँ के मुख्यमन्त्री संवेदनहीन दिख रहे हैं।

देश का पालतू मीडियातन्त्र और सरकारें कोरोना-योद्धा कहकर पीठ ठोंकती रहीं; हमारे रुपयों का अपव्यय करते हुए, कथित कोरोना-योद्धाओं पर वायुयानों से फूल बरसाये गये और अब कोरोनारोगियों को अपने आचरण से उन्हीं का एक वर्ग अपमानित कर रहा है। बेशक, स्वास्थ्यकर्मियों का एक वर्ग ऐसा है, जो सेवाभाव का प्रदर्शन कर रहा है।
उक्त कुव्यवस्था की रौशनी में केन्द्र और राज्य की सरकारों की एलास्टिक चड्ढियाँ सरकती हुई दिख रही हैं। मानवीय भावना-प्रदर्शन करने के स्थान पर कुछ राज्यपालों की नितान्त घृणित भूमिका दिख रही है। प्रश्न है, कोरोना के आरम्भिक काल में वे सब कहाँ छुपे थे? देश का राष्ट्रपति मौन है? फिर वह किस बात का प्रथम नागरिक? इस अप्रासंगिक शब्दावली का दाहसंस्कार कर देना चाहिए।

केन्द्र-सरकार तो अब ‘घोषित’ रूप में (मेरी सरकार, भारतीय जनता पार्टी) ‘भारतीय जनता पार्टी’ की सरकार बन चुकी है। यही कारण है कि जहाँ-जहाँ भारतीय जनता पार्टी की सरकारें हैं, वहाँ-वहाँ उनका संरक्षण किया जाता है और जहाँ-जहाँ भारतीय जनता पार्टी की सरकारें नहीं हैं, वहाँ-वहाँ नंगापन का प्रदर्शन किया जाता है। क्या यही है, देश की सरकार का चरित्र-चाल-चेहरा?

सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; १२ जून, २०२० ईसवी)