● आचार्य पण्डित पृथ्वीनाथ पाण्डेय
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भले ही किसी ने वा एक समूह ने उच्चकोटि की उपाधियाँ :– डी० फ़िल्, पीएच्० डी०, डी० लिट्०, विद्यावारिधि, महामहोपाध्याय, शिक्षा-विशारद, विद्यावाचस्पति इत्यादिक उपाधियाँ अर्जित कर ली होँ; उच्चपदस्थ होँ; भाषाविद्, भाषाविज्ञानी, साहित्यकार, सम्पादक, ज्ञानी-महाज्ञानी, प्रकाण्ड पण्डित-पण्डिता, विद्वान्-विदुषी, हिन्दीभाषा-साहित्य के ‘सर’-‘मैडम’-‘मैम’ होँ फिर भी वाचन और लेखनस्तर/लेखन-स्तर पर किसी के लिए हिन्दीभाषा/हिन्दी-भाषा ‘हस्तामलक’ नहीँ है। यह एक सारस्वत साधना है, जिसे निरन्तर अध्ययन, अनुशीलन, अध्यवसाय एवं अभ्यास के द्वारा ही अर्जित किया जा सकता है।
खेद है! सात्त्विक (‘सात्विक’ अशुद्ध है।) ‘साधना’ के स्थान पर तामसिक ‘धन्धा’ को स्थापित कर दिया गया है, जिसका परिणाम है कि विश्व के वे समस्त उच्चस्तरीय शैक्षणिक संस्थान, जहाँ ‘हिन्दी-माध्यम मे’ (यहाँ ‘से’ अशुद्ध है।) किसी भी विषय का अध्ययन-अध्यापन किया जा रहा हो, व्यवहार-स्तर पर ‘हिन्दीभाषा की शुचिता’ की अवहेलना की जाती रही है; वहाँ अज्ञान है और अनभिज्ञता भी; एक मुहावरा/लोकोक्ति/कहावत चरितार्थ होती दिख रही है :– “सब धान बाईस पसेरी”।
(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पण्डित पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; १२ मई, २०२४ ईसवी।)