
● आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय
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बहुत दूर जाने की बात नहीँ है, बहुसंख्य इलाहाबादी प्रबुद्धजन ही नहीँ जानते कि देश मे सबसे पहले इलाहाबाद आज़ाद हुआ था और एक दिन के लिए देश की राजधानी भी बनाया गया था। बेशक, वह आज़ादी सिर्फ़ ११ दिनो के लिए थी; परन्तु उसके घटनाक्रम पर दृष्टिपात करने पर वह एक ‘महागाथा’ के रूप मे प्रतिपादित होता दिखता है। कुछ जानकार उस आज़ादी को दस दिन का भी मानते हैँ; परन्तु सत्य यह है कि ६ जून, १८५७ ई० को इलाहाबादी विद्रोहियोँ ने पूर्वनियोजित ढंग से मौलवी लियाक़त अली के नेतृत्व मे रात्रि ८ और ९ के मध्य इलाहाबाद मे रणभेरी बजा दी थी और ७ जून को इलाहाबाद पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया था। उस क्रान्ति मे हिन्दू और मुसल्मानो ने संघटित होकर अँगरेज़ोँ के छक्के छुड़ा दिये थे। कौशाम्बी-क्षेत्र (तब इलाहाबाद का अभिन्न हिस्सा था।) मे महगाँव के मौलवी लियाक़त अली एक दूरदर्शी नेतृत्वकर्त्ता थे। वह अवधि स्वतन्त्रता-आन्दोलन की थी, जब समूचे भारत मे क्रान्ति की लपटेँ व्याप्त थीँ।
अन्तिम मुग़ल-सम्राट् बहादुर शाह ज़फ़र ने इलाहाबाद की कमान लियाक़त अली को सौँपी थी। उस समय वर्ष १८५७ के स्वतन्त्रता-आन्दोलन की आग देशभर मे भड़क चुकी थी, जिसकी विप्लवकारी लपटेँ अवध से फैलती हुईँ इलाहाबाद और उसके आस-पास के क्षेत्रोँ को अपने आगोश मे ले चुकी थीँ। इलाहाबाद मे दारागंज, कीडगंज मीरापुर, दरियाबाद इत्यादिक क्षेत्रोँ के पण्डोँ ने उस आज़ादी की लड़ाई मे विद्रोहियोँ का तन-मन-धन से साथ दिया था।
अँगरेज़ोँ और उनके आयुध-भण्डार की सुरक्षा के लिए मुग़ल-बादशाह अकबर-द्वारा निर्मित कराया गया इलाहाबाद-क़िला एक प्रकार से अबेध्य था। उस क़िले के भीतर अँगरेज़ी सेना की ओर से बड़ी संख्या मे गोले-बारूद और अन्य घातक हथियार रखे गये थे। इलाहाबादी और आस-पास के अन्य भारतीय विद्रोही उस क़िले की उपयोगिता और महत्ता को समझते थे। उन्हेँ मालूम था– उस क़िले पर आक्रमण कर, उसे अपने आधिपत्य मे लेने का मतलब– इलाहाबाद को अँगरेज़ोँ की पराधीनता से आज़ादी दिलाना। इतना ही नहीँ, उस आधिपत्य-ग्रहण करने से अवधक्षेत्र को भी पराधीनता की बेड़ी से मुक्त कराया जा सकता था। वे सब भारतीय विद्रोही इससे वाक़िफ़ थे। इसका परिणाम हुआ कि इलाहाबाद और आस-पास के क्षेत्रोँ के साथ-साथ अवध, वाराणसी इत्यादिक के भारतीय विद्रोही स्वतन्त्रता-संग्राम मे प्राण-पण (‘प्राणप्रण’ अशुद्ध है।) से लग गये। यद्यपि अँगरेज़ी शासन के विरुद्ध विद्रोहियोँ की बनायी गयी सारी योजनाएँ गुप्त थीँ तथापि अँगरेज़ोँ के मुखबिरोँ ने अँगरेज़-प्रशासन तक क्रान्तिकारी योजना की ख़बर पहुँचा दी थी, फिर क्या था– अँगरेज़ोँ ने विद्रोहियोँ का मुक़ाबला करने के लिए अपनी सेना प्रतापगढ़ से इलाहाबाद के लिए भेज दी थी। इसके साथ ही कई अँगरेज़ अधिकारियोँ को भी इलाहाबाद रवाना कर दिया गया था। इतना ही नहीँ, अँगरेज़ी प्रशासकोँ ने अपनी व्यूह-रचना भी कर डाली थी, जिसके अन्तर्गत अकबर के क़िले की सुरक्षा के लिए सुदृढ़ तैयारी कर ली गयी थी। भारतीय विद्रोही वाराणसी के मार्ग से भी आनेवाले थे, इसकी जानकारी पाकर अँगरेज़ोँ ने वाराणसी से दारागंज (इलाहाबाद) की ओर आनेवाले मार्ग को अवरुद्ध करने और सेना तैनात करने की रणनीति के अन्तर्गत देशी सैनिकोँ की दो टुकड़ियोँ को दो तोपोँ के साथ दारागंज मे नाव के पुल पर तैनात कर दिया था। इसके पीछे अँगरेज़ी प्रशासन की यह चाल थी कि जैसे ही विद्रोही वाराणसी की ओर से इलाहाबाद आयेँगे, उन सबको गंगानदी मे डुबोकर मार दिया जायेगा। अँगरेज़ोँ ने क़िले पर जो तोपेँ तैनात कर रखी थीँ, उनका मुँह वाराणसी से दारागंज की ओर आनेवाले मार्ग की ओर स्थिर कर दिया था। इतना ही नहीँ, अँगरेज़ोँ ने दारागंज से एक किलोमीटर की दूरी पर स्थित आलोपीबाग़ (जहाँ लेखक का निवास-स्थान है।) मे देशी सैनिकोँ की दो टुकड़ियाँ तैनात कर रखी थीँ। क़िले के भीतर पहले से ही ६५ तोपची, ४०० घुड़सवार और बड़ी संख्या मे पैदल सैनिक हर परिस्थिति का सामना करने के लिए तत्पर कर दिये गये थे।
उल्लेखनीय है कि ६ जून की रात्रि मे ८-९ बजे के मध्य जिस विद्रोह की चिनगारी भड़की थी, वह बाद की रात्रि-अवधि मे विकराल रूप ले चुकी थी। इलाहाबाद, कौशाम्बी, प्रतापगढ़ अवध और आसपास के अन्य क्षेत्रोँ से विद्रोहियोँ ने एकजुट होकर वहाँ की पुलिस-चौकियोँ पर धावा बोल दिया था। उस भीषण परिदृश्य को देखकर पुलिसकर्मी भयवश चौकियाँ छोड़-छोड़कर भागने लगे थे। सम्पूर्ण सामरिक वातावरण अँगरेज़ी हुक़ूमत के विरुद्ध था। दूसरी ओर, जो भारतीय सैनिक अँगरेज़ोँ की सेना मे शामिल थे, उनमे से बहुसंख्य मे अपने देश के प्रति प्रेम जाग्रत् हुआ और उन्होँने भी स्वयं को विद्रोहियोँ मे शामिल कर लिया था, परिणाम यह हुआ कि जब अंँगरेज़ अधिकारियोँ ने ६ जून, १८५७ ई० को रात्रि ९-१० के मध्य तोपोँ को क़िले के भीतर ले जाने का आदेश किया था तब अंगरेज़ोँ की सेना मे शामिल भारतीय सैनिकोँ ने ही उन तोपोँ के चेहरे अंगरेज़ोँ की ओर घुमा दिये थे और उन पर गोले दाग़ने शुरू कर दिये थे। फिर क्या था, उन सैनिकोँ का साथ पाकर विद्रोहियोँ का आत्मबल ऊँचा होता गया। सबने एक साथ मिलकर, बग़ावत की आवाज़ बलन्द करते हुए, अँगरेज़ी सेना पर चौतरफ़ा हमला कर दिया था तब अँगरेज़ सैन्य-अधिकारी एलेक्ज़ेण्डर ने अपनी सेना मे शामिल शेष भरतीयोँ को विद्रोहियोँ पर गोली चलाने का आदेश किया था; परन्तु उन सैनिकोँ ने भी हथियार उठाने से मना कर दिया था, फिर क्या था– वहाँ मोर्चा सँभाले दोनो लेफ़्टिनेण्ट :– एलेक्ज़ेण्डर और हावर्ड वहाँ से भागने लगे। परन्तु विद्रोहियोँ ने दोनो पर निशाने साधे, जिसमे हावर्ड तो भागने मे सफल रहा, जबकि एलेक्ज़ेण्डर मारा गया था। विद्रोहियोँ ने जिधर भी अँगरेज़ अधिकारियोँ को देखा, मार डाला। जो भारतीय बन्दी थे, उन्हेँ आज़ाद कराया।
विद्रोहियोँ ने सबसे पहले अँगरेज़ी सैन्यतन्त्र की संचार-व्यवस्था भंग की थी, तत्पश्चात् ख़ज़ाने से ३० लाख रुपये की लूट की थी। अन्तत:, सुब्ह होते-होते (७ जून, १८५७ ई०) इलाहाबाद-कोतवाली के भवन के ऊपर स्वाधीनतासूचक हरा झण्डा लहरा दिया गया था। बहादुर शाह ज़फ़र ने विद्रोह के नेतृत्वकर्त्ता मौलवी लियाक़त अली को आज़ाद इलाहाबाद का प्रमुख नियुक्त करते हुए, उन्हेँ सारे अधिकार सौँप दिये थे।
यहाँ यह भी महत्त्वपूर्ण विषय है कि पराधीन भारत मे इलाहाबाद को एक दिन के लिए ‘राजधानी’ भी बनाया गया था। ज्ञातव्य है कि महारानी विक्टोरिया ने १ नवम्बर, १८५८ ई० को ‘ईस्ट इण्डिया कम्पनी’ के शासन को समाप्त करने की घोषणा मिण्टो पार्क, कीडगंज, ‘इलाहाबाद’ मे ही कर दी थी और शासन-संचालन करने का दायित्व स्वयं ग्रहण करते हुए, उसे ब्रिटिश-शासन के अन्तर्गत कर लिया था। उसी दिनांक को इलाहाबाद मे महारानी विक्टोरिया का दरबार लगाया गया था, जिसमे महारानी विक्टोरिया का एक घोषणापत्र पढ़ा गया था, जिसमे इलाहाबाद को ‘एक दिन के लिए’ भारत की राजधानी बनाया गया था। इसका मुख्य कारण था कि तब इलाहाबाद उत्तर-पश्चिमी प्रान्तोँ की भी राजधानी था।
इलाहाबाद को आज़ाद कराने के बाद मौलवी लियाक़त अली ने ख़ुसरोबाग़, इलाहाबाद से अँगरेज़ोँ की सरकार के समानान्तर अपना शासन-संचालन किया था। उन्होँने ख़ुसरोबाग़ से ही अपना शासन संचालित करते हुए, कासिम अली और अशरफ़ को कोतवाल बनाया था तथा सैफ़उल्लाह और सुखराम को चायल का तहसीलदार नियुक्त किया था।
अफ़्सोस! मौलवी लियाक़त अली और उनके सहयोगी अँगरेज़ोँ की मायावी नीति को पहचान नहीँ सके थे, जिसका परिणाम रहा– इलाहाबाद मात्र ११ दिनो के लिए आज़ाद रहा, फिर अँगरेज़ अधिकारियोँ ने जिस तरह से इलाहाबादी और आस-पास के विद्रोहियोँ और उनके परिवारवालोँ के साथ नृशंस व्यवहार किया था, वह सर्वाधिक रक्तिम था। कर्नल नील की सेना ने जो ख़ूनी खेल खेला था, उसे आज भी इतिहास के पन्नो पर ‘अविस्मरणीय घटना’ के रूप मे रेखांकित किया जाता है। इसका परिणाम रहा कि विद्रोही पकड़े गये; मारे गये; जलाये गये; इलाहाबाद के चौक और सुलेमसराय (चौफटका के आगे) मे क्रमश: नीम और इमली की डालोँ पर, बैलगाड़ी मे बाँधकर लाये गये विद्रोहियोँ की गरदनो मे रस्से बाँधकर, लटका दिये गये थे; उनके घरोँ मे आग लगाकर, सबके बच निकलकर भागने के सारे रास्ते बन्द कर दिये गये थे। इसप्रकार १८ जून, १८५७ ई० को अँगरेज़ोँ ने इलाहाबाद पर पुन: अपना पूर्ण अधिकार कर लिया था।
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