गले की हड्डी बनते रोहिंग्या शरणार्थी!

डॉ० पृथ्वीनाथ पाण्डेय
(प्रख्यात भाषाविद्-समीक्षक)

डॉ० पृथ्वीनाथ पाण्डेय-


इन दिनों अन्तरराष्ट्रीय मंचों से रोहिंग्या मुसलमानों के विस्थापन का विषय तूल पकड़ता जा रहा है, जो स्वाभाविक है। ऐसा इसलिए कि जिन्हें ‘बाँग्लादेशी’ मुसलमान, कहा जाता है, वे ही ‘रोहिंग्या’ मुसलमान हैं, जो ‘रोहिंग्या’ समुदाय से आते हैं और वे बड़ी संख्या में म्यांमार के दक्षिण-पश्चिम में स्थित राज्य ‘रखाइन’ में घुसपैठ कर चुके हैं। उसके बाद पूरे अधिकार से वहाँ रहना चाहते हैं, जिसे वहाँ के बौद्ध-बहुल नागरिक नहीं चाहते। इसी अस्तित्व-संघर्ष को लेकर ‘रोहिंग्या’ मुसलमानों को म्यांमार से भगाये जाने की प्रक्रिया चल रही है।
इतिहास पर नज़रें दौड़ायें तब ज्ञात होता है कि बारहवीं शताब्दी के आरम्भ के दशक में रोहिंग्या मुसलमान बर्मा के रखाइन प्रान्त में आकर बस गये थे, तब रखाइन राज्य ‘अराकान’ के नाम से जाना जाता था। १४३० ई० में वर्मा पर बौद्ध राजा नारामी खला (मिन सामुन) का शासन था और उस समय कुछ रोहिंग्या मुसलमान राजा के दरबार में सेवक के रूप में होते थे। वह राजा उदार था। उसने मुसलमानों को अपना सलाहकार और दरबारी बनाया था। वैसे तो वे मुसलमान वहाँ की सरकार के रहमो करम पर पल रहे थे परन्तु धीरे-धीरे, वे वहाँ के मूल नागरिक बौद्धों के विरुद्ध होने लगे और उन पर अपना प्रभुत्व जताने लगे। नागरिक असंतोष को देखते हुए, बर्मा के सैनिक शासकों ने वर्ष १९८२ के ‘नागरिकता अधिनियम’ के आधार पर उन मुसलमानों से नागरिकों के सारे अधिकार छीन लिये थे। फिर क्या था, रोहिंग्या समुदाय के शरणार्थी और वहाँ के मूल नागरिक बौद्धों के बीच रक्तिम संघर्ष छिड़ गया था। आज हमें बौद्धों और रोहिंग्या-समुदाय के बीच जो संघर्ष दिख रहा है, उसकी नीवँ १९५२ ई० से पहले ही पड़ चुकी थी। १९५० ई० में रोहिंग्या मुसलमानों की पीठ पाकिस्तान ने भी ठोंकी थी।
स्मरणीय है कि द्वितीय युद्ध के समय बौद्ध-समुदाय और हिन्दू प्रवासियों ने ‘आज़ाद हिन्द फ़ौज’ का समर्थन किया था, जिसके प्रतिकारस्वरूप चतुर अँगरेज़ों ने रोहिंग्या-समुदाय के चरमपन्थियों का ‘इस्तेमाल’ स्थानीय बौद्धों और हिन्दुओं के विरुद्ध किया था, जिसमें भीषण रक्तपात कराया गया था। इस प्रकार यदि दृष्टि में वस्तुपरकता लायें तो ज्ञात होगा कि आज जो रोहिंग्या शरणार्थियों और बौद्धों के संघर्ष का महावृक्ष दिख रहा है, वह अँगरेज़ों-द्वारा बोये गये ‘विष-बीज’ का ही परिणाम और प्रभाव है। यही कारण है कि आज म्यांमार के बौद्ध नागरिक रोहिंग्या शरणार्थियों को फूटी आँखों से भी देखना पसन्द नहीं करते।
म्यांमार में बौद्ध बहुसंख्यक और रोहिंग्या अल्पसंख्यक हैं। वहाँ कुल मिलाकर, लगभग ९० लाख रोहिंग्या शरणार्थी रहते थे, जो अब विस्थापित होकर बहुत कम रह गये हैं। उन्हें म्यान्मार के नागरिक बौद्ध अवैध बाँग्लादेशी प्रवासी मानते हैं। यद्यपि वे वहाँ पीढ़ियों से रहते आ रहे हैं तथापि उनकी देशविरुद्ध गतिविधियों को देखते-समझते हुए, म्यांमार की सरकार ने उन्हें नागरिकता देने से इंकार कर दिया है। कुछ अन्तरालों पर जिस तरह से वहाँ साम्प्रदायिक हिंसाएँ की जाती रही हैं, वे म्यांमार के लिए संकट की स्थिति पैदा करती आ रही थीं। पाकिस्तानी आतंकी संगठनों की शह पर रोहिंग्या मुसलमानों ने अपना आतंकी संगठन बना लिया था। यही कारण है कि रोहिंग्या शरणार्थियों को ‘आतंकी संगठनों का कच्चा माल’ के रूप में देखा जा रहा है। उनका वर्चस्व इतना विस्तार कर चुका था कि वर्ष २००२ में भीषण हिंसा हुई थी, जिसमें बड़ी संख्या में बौद्ध और रोहिंग्या शरणार्थी मारे गये थे और लगभग ९ लाख शरणार्थी बाँग्लादेश में भागने के लिए मज़बूर किये गये थे। वर्ष २०१२ में अवैध रूप में अपनी नागरिकता के अधिकार के लिए जिस तरह से रोहिंग्या शरणार्थियों ने वहाँ हिंसा और उपद्रव का वातावरण तैयार कर, कई सुरक्षाधिकारियों की हत्या कर दी थी, वह उन्हें किसी भी देश में शरण न देने के लिए पर्याप्त कारण बताता है। उसमें सैकड़ों रोहिंग्या शरणार्थी मारे गये थे। २५ अगस्त, २०१७ ई० को उन शरणार्थियों ने ‘मौंगडेव’ ज़िले की सीमा पर म्यांमार के सुरक्षा कर्मियों पर प्राणघातक हमला कर, अपनी आतंकी प्रवृत्ति का पूर्ण परिचय दे दिया था, जिसमें १०-१२ सुरक्षाधिकारी मारे गये थे। उसके बाद से ३ लाख १३ हज़ार रोहिंग्या शरणार्थी बाँग्लादेश के शिविरों में जाने के लिए बाध्य हुए थे। यहाँ तक कि उनके पाकिस्तान-समर्थित आतंकी संगठनों के साथ साँठ-गाँठ के भी साक्ष्य मिले हैं। पाकिस्तान के ‘आई०एस०आई०’ और ‘आई०एस०आई०एस०’ संगठनों के साथ रोहिंग्या शरणार्थियों के तार जुड़े होने के भी प्रमाण म्यांमार-सरकार को प्राप्त हो चुके हैं क्योंकि मात्र एक निरीह-निरुपाय शरणार्थी के रूप में म्यांमार में प्रवेश करनेवालों के पास घातक हथियार कहाँ से आ गये हैं, यह प्रश्न ही स्वयं में एक बहुत प्रभावकारी साक्ष्य है। अब तो यह भी उजागर हो चुका है कि प्रमुख पाकिस्तानी आतंकी संगठन ‘अल क़ायदा’ रोहिंग्या मुसलमानों को प्रशिक्षित करने में लगा हुआ है।
यही कारण है कि ‘मानवाधिकार’ की पैरवी करनेवाली ‘आंग सान सूची’ की सरकार रोहिंग्या शरणार्थियों को नागरिकता और शरण देने के पक्ष में बिलकुल नहीं हैं और वे म्यांमार के सेना-प्रमुख मिन आंग लैंग का साथ दे रही हैं। दूसरा कारण यह भी है कि सूची की सरकार का गृह, रक्षा तथा सीमा-सम्बन्धित किसी भी विषय पर सेना का विरोध करने और उस पर निर्णय करने का कोई अधिकार नहीं है। बेशक, वे रोहिंग्या शरणार्थियों के लिए मानवीय आधार पर अपने विचार व्यक्त कर सकती हैं; जनमत-संग्रह करा सकती हैं परन्तु सेना के कार्यों में हस्तक्षेप नहीं कर सकतीं। वे मौक़े की नज़ाकत को बाख़ूबी समझती हैं। उन्हें मालूम है कि सेना से टकराने से उनकी सरकार संकट में पड़ सकती है। वैसे भी सूची ने ‘ह्यूमन राइट्स वाच’ और रोहिंग्या शरणार्थियों के पक्ष में बोलनेवाले देशों को यह कहकर समुचित उत्तर दे दिया है— रखाइन स्टेट में जो भी हो रहा है, वह हमारे देश के रुल ऑव़ लॉ’ के अनुसार हो रहा है। ऐसे में, हमें किसी भी अन्तरराष्ट्रीय दबाव की कोई परवाह नह़ी है।
दूसरी ओर, हिंसा-प्रभावित रखाइन राज्य पर सेना का पूर्ण नियन्त्रण है, जिसके परिणामस्वरूप रोहिंग्या शरणार्थियों को वहाँ से छोटी-छोटी नावों में भरकर समुद्र के रास्ते बाँग्लादेश की ओर भगाया जा रहा है।
बाँग्लादेश की सरकार भी रोहिंग्या मुसलमानों की पाकिस्तानी आतंकियों के साथ मिलीभगत से बाख़बर है। यही कारण है कि वहाँ की प्रधान मन्त्री शेख़ हसीना के राजनीतिक सलाहकार एच०टी० इमाम ने सुस्पष्ट कर दिया है— सरकार शरणार्थियों पर नज़रें रखी हुई हैं। और यह सुनिश्चित कराने के लिए उनका पंजीकरण कर रही है कि आतंकवादी देश में घुसने न पायें।
इमाम ने यह भी कहा है— हम किसी अलगाववादी संगठन को भारत और म्यांमार-सहित अपने किसी मित्र और पड़ोसी के ख़िलाफ़ क़दम उठाने के लिए बाँग्लादेश की ज़मीन का इस्तेमाल करने की इजाज़त नहीं दे सकते।
ऐसे में, अब इस विषय पर भारत के दृष्टिकोण का प्रश्न है। १८ सितम्बर, २०१७ ई० को भारत-सरकार ने देश के शीर्षस्थ न्यायालय ‘उच्चतम न्यायालय’ में अपना शपथपत्र प्रस्तुत कर दिया था, जिसमें स्पष्ट कहा गया है कि भारत में रोहिंग्या मुसलमानों को शरण देना, भारत की सुरक्षा को लेकर ख़तरा है। पाकिस्तान-स्थित आतंकी संगठनों के साथ रोहिंग्या शरणार्थियों के सम्बन्ध होने की बात करते हुए, उन्हें किसी भी क़ीमत पर भारत में रहने की अनुमति नहीं देने की बात कही गयी है। भारत ने यह भी कहा है कि जिनके पास संयुक्त राष्ट्र संघ के दस्तावेज़ नहीं हैं, उन्हें भारत से जाना होगा। वहीं उच्चतम न्यायालय ने इस विषय को ३ अक्तूबर, २०१७ ई० तक के लिए टाल दिया है।
उल्लेखनीय है कि वर्तमान में लगभग ४० हज़ार रोहिंग्या शरणार्थी भारत के विभिन्न स्थानों में रह रहे हैं, जिनमें जम्मू, हैदराबाद, राजस्थान, उत्तरप्रदेश, दिल्ली— एन०सी०आर० तथा हरियाणा हैं।
उक्त सन्दर्भ में भारत का विधिक पक्ष सुदृढ़ है क्योंकि भारत ने शरणार्थी-विषयक संयुक्त राष्ट्रसंघ १९५१ की ‘शरणार्थी सन्धि’ और १९६७ में लाये गये प्रोटोकाल पर हस्ताक्षर नहीं किये थे। ऐसे में, भारत किसी को भी शरण देने अथवा नहीं देने के लिए स्वतन्त्र है। वहीं यह भी सच है कि भारत की सरकारें ‘वोट की राजनीति’ को प्राथमिकता देते हुए, समय-समय पर बाँग्लादेशी, अफ्रीकी, अफग़ानी, श्रीलंकाई तथा रोहिंग्या मुसलमानों को अपने यहाँ शरण देती रहीं और ग़लत-सही तरीक़े से उन्हें भारत का नागरिक बनाती रहीं। उनकी वही राजनीतिक प्रवृत्ति अब भारत के लिए सिरदर्द बनता जा रहा है।