जो ज्ञान-विज्ञान की कसौटियों पर खरा नहीं, वह सनातन धर्म का अंग भी नहीं

न्यायप्रेमी इस आर्टिकल को ध्यान से पढ़े व मनन करें।

आजकल की पूजा-पाठ को ही लोग धर्म समझ बैठे हैं..!
किसी की पूजा और कोई विशेष तरह की उपासना या साधना या विशेष प्रकार का वस्त्र पहनने को ही धर्म कहना कदापि उचित नहीं है..!!

यह सब तो निजी अभिरुचि और आचरण का मामला है..!
जिसको जो करना है, करे..!
जिसको जो खाना है, खाये..!
जिसको जिसे पूजना है, पूजे..!
प्रत्येक व्यक्ति अपनी निजी आचरण के मामलों में स्वतंत्र है..!
इसे धर्म नहीं बल्कि संस्कृति अवश्य कह सकते हैं..!!

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है।
समाज एक व्यवस्था है, सभ्यता है।
जिसका सत्यात्मक धर्म है- ‘न्याय’।
यह न्यायधर्म कहता है कि प्रत्येक व्यक्ति को निजी चरित्र की स्वतंत्रता है..!

धर्म सत्य पर आधारित होने के कारण शाश्वत और सनातन है..!

जो सत्य है, प्रमाणित है, जो धारण करने योग्य है, अथवा जिसे अपने सामाजिक हितों की रक्षा के लिए धारण किया जा सकता है, वही धर्म है..!
अन्य कोई बात धर्म नहीं हो सकती..!!
जो बात ज्ञान-विज्ञान की कसौटियों पर असत् या अनुपयोगी सिद्ध हो जाये वह स्वतः सनातन धर्म से बाहर हो जाती है..!!!

H2O से पानी बनता है…!
यह बात प्रमाणित है और सत्य है, शाश्वत है, सनातन है, सर्वमान्य है..!!
इसे कोई हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई कभी इन्कार नहीं कर सकते हैं, क्योंकि यह शाश्वत और सनातन है..!
सबके द्वारा धारण किये जाने योग्य है।
अतः यह बात सनातनधर्म सिद्ध हो गयी।

दुनिया के सज्जन लोग जिस धर्म की बात करते है वह भी सत्यात्मक न्याय का सनातन धर्म है जो शाश्वत और सर्वव्यापी है, सर्वहितकारी है।
तथा मूर्खों और धूर्तों को छोड़कर सर्वमान्य भी है..!

जो सत्य होता है, वह धारण करने योग्य होता है।
जो भी सत्य है उसे सज्जनों के द्वारा धारण किया ही जाता है..!
यह धारणीयता ही धर्म है..!!

संसार में जो बात ज्ञान-विज्ञान के समस्त प्रयोगों द्वारा अंतिम रूप से सत्य एवं सर्वोपयोगी सिद्ध हो जाये, वह सज्जनों के बीच सर्वमान्य हो ही जाती है..!

सत्यात्मक होने से ही वह बात सनातन धर्म हो जाती है..!!
यही दुर्जनों द्वारा अमान्य किन्तु सज्जनों के लिए सर्वमान्य धर्म है…!!!

  • ✍️?? राम गुप्ता, स्वतन्त्र पत्रकार, नोएडा