परिचर्चा : निर्गुण काव्य परम्परा के संवाहक संत रैदास

दिनांक 18 फरवरी 2022 को इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग द्वारा आयोजित शुक्रवारीय परिचर्चा ऑनलाइन मो में सम्पन्न हुई थी । परिचर्चा का विषय “निर्गुण काव्य परम्परा के संवाहक संत रैदास ” लीक से हटकर व महत्वपूर्ण विषय था । संत रैदास का जन्म काशी में माघ पूर्णिमा दिन रविवार को संवत 1433 को हुआ था। उनके जन्म के बारे में एक दोहा प्रचलित है। “चौदह से तैंतीस कि माघ सुदी पन्दरास। दुखियों के कल्याण हित प्रगटे श्री रविदास। “उनके पिता रग्घु तथा माता का नाम घुरविनिया था। उनकी पत्नी का नाम लोना बताया जाता है। आयोजित कार्यक्रम के मुख्य अतिथि डॉ कुसुम वियोगी जी थे । आप वर्तमान में सदस्य , हिन्दी अकादमी (दिल्ली), कला, संस्कृति एवं भाषा विभाग राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र, दिल्ली सरकार के रूप में कार्यरत हैं। आपकी कविताओं और कहानियों का अनेक भाषाओं में अनुवाद हुआ है । आपको अनेक संस्थाओं द्वारा आपके लेखन और सामाजिक कार्यों के लिए सम्मानित भी किया गया है । आप आकाशवाणी और दूरदर्शन पर भी अनेक बार अपनी कविताओं की प्रस्तुति दे चुके हैं। आपका दलित सामाजिक आंदोलन से जुड़ाव है एवं आप दलित साहित्य मंच व दलित लेखक संघ के संस्थापक सदस्य भी हैं । आपके आलेख , कहानियाँ एवं कवितायें देश की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते हैं ।

डॉ वियोगी अपने वक्तव्य के क्रम में कहते हैं कि भक्ति आंदोलन की पृष्ठभूमि बौद्ध धर्म से होते हुए वैदिक संस्कृति, चार्वाक दर्शन आदि के रास्ते नाथों एवं सिध्दों तक पहुँचती है । इसके बाद मध्यकाल में भक्तिआन्दोलन होता है । अधिकतर विद्वान भक्तिआन्दोलन को दो भागों में बाट कर के देखते हैं । निर्गुण भक्ति शाखा और सगुण भक्ति शाखा । निर्गुण भक्ति को ज्ञानमार्गी शाखा के नाम से भी जानते हैं । रैदास निर्गुण भक्ति के महत्वपूर्ण संत कवि हैं। रैदास की काव्यपरंपरा बुद्ध, सिद्ध, नाथ की परंपरा से होते हुए निर्गुण भक्ति में परिवर्तित होती है । डॉ वियोगी कहते हैं कि क्षेपकों को जोड़कर संत रैदास की हत्या कर दी गई । समाज में इन्हें अपनाया नही गया । हिंदी साहित्य में रामचंद्र शुक्ल से लेकर डॉ रामविलास शर्मा तक इन्हें नही अपना पाते । डॉ रामकुमार वर्मा यदि कबीर पर काम नही करते तो कबीर भी हमारे सामने इस रूप में नही आ पाते । सिक्ख धर्मग्रंथ में उनके पद, भक्ति गीत, और दूसरे लेखन (40 पद) आदि दिये गये थे, गुरु ग्रंथ साहिब जो कि पाँचवें सिक्ख गुरु अर्जुन देव द्वारा संकलित की गयी। सामान्यत: रैदास के अध्यापन के अनुयायी को रविदासीया कहा जाता है, और रविदासीया के समूह को रविदासीया पंथ कहा जाता है।

गुरुग्रंथ साहिब में उनके द्वारा लिखा गया 40 पद हैं जो इस प्रकार है; “रागा-सिरी(1), गौरी(5), असा(6), गुजारी(1), सोरथ(7), धनसरी(3), जैतसारी(1), सुही(3), बिलावल(2), गौंड(2), रामकली(1), मारु(2), केदारा(1), भाईरऊ(1), बसंत(1), और मलहार(3)”।
इसी क्रम में डॉ वियोगी ने संत रैदास के कई पदों का उदाहरण प्रस्तुत किया जैसे–
(1) जाति-जाति में जाति हैं, जो केतन के पात। रैदास मनुष ना जुड़ सके जब तक जाति न जात।।

जिस प्रकार केले के तने को छीला तो पत्ते के नीचे पत्ता, फिर पत्ते के नीचे पत्ता और अंत में कुछ नही निकलता, लेकिन पूरा पेड़ खत्म हो जाता है। ठीक उसी तरह इंसानों को भी जातियों में बांट दिया गया है, जातियों के विभाजन से इंसान तो अलग-अलग बंट ही जाते हैं, अंत में इंसान खत्म भी हो जाते हैं, लेकिन यह जाति खत्म नही होती ।

(2) हरि-सा हीरा छांड कै, करै आन की आस। ते नर जमपुर जाहिंगे, सत भाषै रविदास।।

(3) मन ही पूजा मन ही धूप, मन ही सेऊं सहज स्वरूप।।

निर्मल मन में ही ईश्वर वास करते हैं, यदि उस मन में किसी के प्रति बैर भाव नहीं है, कोई लालच या द्वेष नहीं है तो ऐसा मन ही भगवान का मंदिर है, दीपक है और धूप है। ऐसे मन में ही ईश्वर वास करते हैं।

(4) कृस्न, करीम, राम, हरि, राघव, जब लग एक न पेखा। वेद कतेब कुरान, पुरानन, सहज एक नहिं देखा।।

रविदास जी ऐसे ही अनेक पदों की व्याख्या आधुनिक सन्दर्भों में करते हैं ।

बिना किसी दुख के शांति और इंसानियत के साथ एक शहर के रुप में संत रैदास जी द्वारा बेगमपुरा शहर की कल्पना की गई । अपनी कविताओं को लिखने के दौरान रैदास जी द्वारा बेगमपुरा शहर को एक आदर्श के रुप में प्रस्तुत किया गया था जहाँ पर उन्होंने बताया कि एक ऐसा शहर जो बिना किसी दुख, दर्द या डर के और एक जमीन है जहाँ सभी लोग बिना किसी भेदभाव, गराबी और जाति अपमान के रहते है। एक ऐसी जगह जहाँ कोई शुल्क नहीं देता, कोई भय, चिंता या प्रताड़ना नहीं न हो।

डॉ वियोगी सवाल करते हुए कहते हैं कि क्यों रामचंद्र शुक्ल और रामविलास शर्मा ने सधुक्कड़ी भाषा का आरोप लगाकर ऐसे गृहस्थ और सामाजिक संतो को छोड़ दिया! उनके विचारों का महत्व क्यों नही दिया गया? जबकि रैदास विचारों में तुलसीदास से बहुत ऊँचाई पर खड़े हैं । मात्र वर्चस्व और अस्तित्व बचाने के लिए उन्हें पीछे छोड़ गया है । 14वीं -15वीं शताब्दी की यह परंपरा हमें दादू , पुरुषोत्तम साहब और पीपा आदि संतो के रास्ते होते हुए आगे ज्योतिबा फूले और डॉ भीमराव अंबेडकर में दिखाई पड़ती है । डॉ वियोगी, व्याख्यान के अंत में कहते हैं कि संतो ने हमे आदर्श समाज और मानवीय विचारधारा का रूप दिया , इसे हमें ग्रहण करना चाहिए ।

कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे हिंदी विभाग के अध्यक्ष प्रो. कृपाशंकर पांडेय ने अपना अध्यक्षीय भाषण दिया । उन्होनें साहित्यकारों को संदेश देते हुए कहा “जब हम निर्गुण संतो पर बात करते हैं तो सगुण भक्तों से तुलना करते हैं यह सही नही है । आज के रहनुमादार अपने निजी जीवन में भी झांकने का प्रयत्न करें , बिना इसे समझें हुए हम भारतीय जीवन और संस्कृति की व्यख्या नही कर सकते ।”

कार्यक्रम के संयोजक डॉ जीराजू और डॉ जनार्दन, कार्यक्रम संचालक अंशुमान कुशवाहा, समकालीन जनमत की प्रधान संपादक मीना राय, शोधार्थी, परास्नातक एवं स्नातक के विद्यार्थी आदि सहयोगी कार्यक्रम में उपस्थित रहे। कार्यक्रम के अंत में डॉ अंशुमान कुशवाहा ने अन्य लोग का धन्यवाद ज्ञापन करते हुए आभार प्रकट किया।

कविराज (छात्र परास्नातक)
इलाहाबाद विश्वविद्यालय