
‘विश्व महिला-दिवस के अवसर पर ‘सर्जनपीठ’ का अन्तरराष्ट्रीय आन्तर्जालिक बौद्धिक परिसंवाद-आयोजन

‘सर्जनपीठ’ के तत्त्वावधान मे ‘विश्व महिला-दिवस’ की पूर्व-संध्या मे आज (७ मार्च) ‘सारस्वत सदन’, आलोपीबाग़, प्रयागराज से ‘महिला-पुरुष श्रम-विभाजन और पारिश्रमिक मे अन्तर का औचित्य?’ विषयक एक अन्तरराष्ट्रीय आन्तर्जालिक बौद्धिक परिसंवाद का आयोजन किया गया, जिसमे देश-देशान्तर के प्रबुद्ध-वर्ग और एक महिला श्रमिक ने अपने प्रासंगिक विचार व्यक्त किये थे।
सुमन (कक्षा सात उत्तीर्ण महिला श्रमिक) ने सिर झुकाते हुए धीमे स्वर मे बताया, “साहेब! आप तो सब जानते हैं कि केतना बेईमानी सब करते हैं। काम हम उहे करते है, जो आदमी लोग करते हैँ। मजूरी देते समय कम देते हैँ। कहो भी तो सुननहार केहू नाहिँ। हम भी उतने ही खटते हैँ जितने आदमी लोग।”
आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय (परिसंवाद-आयोजक) ने कहा ” ठीकेदार जब महिला श्रमिकोँ से काम लेता है तब काम लेने से पहले ही वह महिला को ‘पराधीन’, ‘अबला’, ‘दैहिक दृष्टि से कमज़ोर’ समझता है। यही कारण है कि वह महिला श्रमिक को दीन-हीन और भोग्या-रूप मे देखते हुए, उसके साथ अन्याय करता है। उदाहरण के लिए– गाँवोँ मे यदि प्रतिदिन के पारिश्रमिक के आधार पर पुरुष को जो पारिश्रमिक ४०० रुपये दिये जाते हैँ, वहीँ महिला को ३०० रुपये दिये जाते हैँ। यह बेईमान नज़र अब दूर होनी चाहिए।”
डॉ० नीलम जैन (हिन्दी-अध्येत्री, संयुक्त राज्य अमेरिका) का मत है, “आर्थिक वैश्वीकरण उत्पादन-व्यापार और वित्तीय-जैसे बहुत-से ऐसे व्यवसाय हैँ, जिनमे मात्र महिलाओँ ने अपनी एक अलग पहचान बनायी है, इसलिए श्रम के आधार पर भेदभाव किसी भी दृष्टि से उचित नहीँ है। श्रम का लैंगिक विभाजन आधुनिक विशिष्ट उत्पादन की समकालीन अर्थव्यवस्था मे निराधार है। जब महिलाएँ घर से बाहर पैसा कमाने के लिए जाती हैँ तब उनकी घरेलू जिम्मेदारियाँ भी ज्योँ-की-त्योँ रहती हैँ और उन पर दोगुना बोझ पड़ता है।ऐसे मे, पारिश्रमिक का अन्तर औचित्यविहीन है।”
डॉ० राघव कुमार त्रिपाठी ‘राघव’ (पत्रकार, हरदोई) ने कहा कि महिला-पुरुष श्रम-विभाजन और पारिश्रमिक मे अन्तर की बात औचित्यहीन है । यदि हम अपनी जड़ों पर विदेशी मट्ठे की जगह घर का पानी डालने लग जायेँ तो भेदभाव की भावना मरते देर नहीँ लगेगी।”