पत्रकारिता हाय-हाय, मेरा दिल ले जाय-जाय

सुधीर अवस्थी परदेसी (ग्रामीण पत्रकार) :

वर्तमान में अखबारों को पत्रकार नहीं कमाऊ पूत चाहिए। जोकि संस्थान को अच्छे से अच्छा विज्ञापन कलेक्ट कर के दे सकें और अखबार की प्रसार संख्या को लगातार बढ़ाते रहें। खैर बात भी सही है अखबार क्या कोई भी बिजनेसमैन यही चाहता है उसकी उन्नति प्रगति हो और बेहतर मुनाफा हो। जब बात अखबारों की आती है तो मुनाफे की बात कहीं ना कहीं समझ से परे हो जाती है।

एक संपादक जी ने कहा था कि भारत की नामी-गिरामी हस्ती के द्वारा जब अखबार शुरू किया गया था तो यह कहा गया था कि अखबार एक मंदिर की तरह है। धर्म के रास्ते पर लाभ हानि नहीं सोचा जाता। खैर जो भी उनकी सोच रही हो उस दौर में सोच परिलक्षित हुई लोगों ने अखबार को एक मंदिर ही माना और जो भी पीड़ा लेकर संपर्क में गया।उसकी समस्या का निदान हुआ। अगर वह गलत होता तो उसके खिलाफ कार्यवाही भी हुई।

अब मैं वर्तमान की पत्रकारिता की बात कर रहा हूं । जहां पर बड़े बड़े संपन्न अखबार आज कमाऊ पूत खोजने में लगे हुए हैं। पत्रकार का मानक अब वह पत्रकार नहीं है जो निस्वार्थ लिखा करते हैं । अब पत्रकार वही है जो अखबार में नित नई आने वाली गाइडलाइंस का पालन कर सकें। वह गाइडलाइन नवीनतम कमाऊ पूतों के लिए कमाई में इजाफा बढ़ाने वाली है। जबकि पुराने पत्रकारों को घुटन होती है।

यह कैसी पत्रकारिता! पीड़ित की आवाज अखबार में तभी छपेगी जब उसका मुकदमा दर्ज हो, जब उसने आला अधिकारियों को शिकायती पत्र दिया हो, जब उसका कोई वीडियो मौजूद हो। अगर आपने उससे मिलकर उसकी पीड़ा को महसूस किया और शब्द दिए तो वर्तमान के अखबारों की खबर नहीं है। अखबार में छपी खबर का पुलिस की जीडी से मिलान हो ऐसी खबर को भला खबर कैसे कहा जा सकता। पढ़े-लिखे योग्य पत्रकार उसको ही खबर मानते हैं।

महाभारत के अनुसार पांच पांडव बैठे हुए हैं। द्रोपदी की लाज जा रही है।आखिर यह अखबार जुएं में क्या हार गए हैं। आंखों के सामने हो रहे द्रोपदी के चीर हरण को लिखने में गाइडलाइंस आड़े आ रही है। पांच पांडवों की तरह अतुलित बलशाली होने के बावजूद भी खामोश बैठे हैं।

वाह री पत्रकारिता! पत्रकार जानता है कि घटना स्थल से लेकर कहां कहां पर झूठी कहानी गढ़ी जाती है। कोई बहुत बड़ा पत्रकार का सरोकार नहीं रहता। फिर भी वह व्यवहार और चाटुकार स्वभाव के कारण तारीफों की चटनी चाटता है। मां सरस्वती का वरद पुत्र होकर भी बेवजह झूठ सच लिखकर आमजन को परोसना भला कहां तक जायज है ? काश वह भी अखबारों की सुर्खियों में हो जो हकीकत कुछ और है और लिखा कुछ और जा रहा है।

ग्रामीण पत्रकारों को मिलता ही क्या है जो वहां पत्रकारिता के मानकों पर खरे उतर सकें। उनके पास तो दलाली ही एक मजबूत सहारा है । उसी के दम पर वह पत्रकारिता का दंभ भरते नजर आते हैं । जिनको इसकी परवाह है उनको यह भी तो सोचना चाहिए की जूतों की पालिश से लेकर सिर की मालिश तक सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त तक हर किसी के जीवन में खर्च है तो पत्रकार का भी कुछ खर्चा होता होगा। यही वजह है कि ग्रामीण पत्रकारों को बड़े अखबारों के संस्थान अपनी नाजायज औलाद मानते हैं। अपना ठप्पा नहीं लगाते। उनको परिचय पत्र आदि की सुविधा नहीं देते। क्योंकि फिर वह संस्थान के कर्मचारी हो जाएंगे और जाहिर सी बात है कि जब माता-पिता का पता लग जाएगा कि कौन है तो उसको अपनी संपत्ति का हिस्सेदार बनाना पड़ता है। इसलिए यह अखबार करवाएंगे सब लेकिन अपना नाम नहीं देंगे। कोई ग्रामीण पत्रकार यह दावा नहीं कर सकता है कि मैं इस संस्थान का पत्रकार हूं क्योंकि उनके पास कोई प्रॉपर्टी नहीं है जिससे वह यह सिद्ध कर सके कि वह संस्थान के पत्रकार हैं। बारंबार संस्थान भी यही कहते हैं काम मत करो छोड़ दो तमाम लोग लाइन में लगे हुए हैं। आखिर क्या इसका निदान क्या है यह तो बुद्धिमान पत्रकार ही जानते!

मेरी समझ से तो ‘पत्रकारिता हाय-हाय, मेरा दिल ले जाय-जाय’ लग रही है।

वैसे हम तौ गंवईले अपनी बात कहिति ?

लेखक यूपी के हरदोई जिले में ग्रामीण पत्रकार हैं।
मो० 9454874675