● आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय
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जी हुजूर! मै एक सम्पादक हूँ;
तरह-तरह का सम्पादक हूँ;
किसिम-किसिम का सम्पादक हूँ।
पूर्वग्रह से सहित सम्पादक हूँ।
सवाल है–
रूप-रुपये-रुतबे का;
तलाश है, ऐसे दाताओँ की,
फिर तो आपको फ़ीचर-पेज का
स्तम्भकार बना दिया।
आप इसे ‘कदाचार’ की संज्ञा नहीँ दे सकते।
मै तो आप पर एहसान कर रहा हूँ;
‘वाइड पब्लिसिटी’ दे रहा हूँ।
भविष्य की कोई चिन्ता नहीँ;
सभी नावेँ किनारे लग चुकी हैँ।
एक ही तो बेटा है ‘फ़क़ीरचन्द’
कीर्तिमान बनाने मे उसका
कोई सानी नहीँ।
पंचवर्षीय योजना का ‘फैन’ रहा है
विगत पाँच वर्षों से
कक्षा दस का विद्यार्थी रहते हुए,
इतिहास बना रहा था;
मगर अब, उसके सर्टिफ़िकेट मे नाम है, ‘अमीरचन्द’;
क्योँकि मेरे अख़बार का ‘न्यूज़ एडिटर’ है।
कल ही तो बेटी की सगाई थी।
हॉस्टल मे रहती थी;
नाम है, ‘मटकन कुमारी’।
आँखोँ से मटकती थी; हर दिल को दरकती थी।
दस-दस बॉय-फ़्रेण्डोँ मे रमती थी।
मुँह से फूँकती थी
और नाक से निकालती थी।
अजब नाम बताती थी।
कहती थी– ‘धूम्रदण्डिका’ है।
अब वह मेरे अख़बार की ‘फ़ीचर-एडिटर’ है।
दामाद भोला-भाला है;
लज्जा का लगा ताला है।
मुँह ज़रूर काला है;
नाम है ‘ईमानचन्द’
‘बलात्कार’ के मुआमले मे,
जेल की रोटी तोड़ रहा था।
नेता जी की मेहरबानी हुई–
आज़ाद हवा मे साँस को घुला रहा है।
अब वह मेरे अख़बार का ‘कॉपी-राइटर’ है।
भतीजा कक्षा पाँच फेल था।
नाम है ‘ज्ञानचन्द’;
गाँव मे ‘भैंस’ चराता था
मगर अब–
मेरे अख़बार का ‘प्रूफ़-रीडर’ है।
आप इसे परिवारवाद की संज्ञा नहीँ दे सकते;
जिसका अपना ‘परिवार’ नहीँ,
वह ‘वाद’ क्या जाने;
ऐसे ही लोग विवादी हैँ;
संवाद से परे दिखते हैँ।
घुटन घूँघट खोल रही;
सहम-सहम बोल रही।
आइए! अब लौट चलेँ।
(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; ३० नवम्बर, २०२४ ईसवी।)