
● आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय
“का हो बहोरी चाचा! ए फजीरे-फजीरे केने चलि देहले? आ तनी हेने आव; पनपियाव कइ ल, ना त खरास मारि दीही।”
“अरे का बताई मरदे, हो पकड़िया तरे एगो बाबा आइल बाड़े। सुनल गइल हा कि ऊ जउन-जउन कहि दे तारे उ तउन-तउन सोझे होखे लाग ता। हे पनपियाउ कइ के तुहूँ चल ना। हो तहार जउन चार गो बकरिया दुइ साल पहिलवाँ भुला गइल रहे, उहो तहरा के मिलि जाई।”
”त का हो, इ कुल बतिया सही बा? हमहूँ कलवतिया के माई के मुहवा से सुनले रहली हाँ।”
“हँ हो; सोरहो आना सचि बा।”
“आ का नाव ह उनकर?”
” लोगवा ‘लड़पोछन महाराज’ त कहे ला।”
”त रुक, तनी गंजिया पहिन लीं। देखीं हमार बकरिया मिल तारी स कि ना।”
”आ जान तार; सहतवार आ मनियर के दूगो मेहररुअन के बारह बरिस से कवनो लइका-फइका ना होत रहल हा; एक हफता दूनो के अइसन झाड़-फूँक कइले हा कि जोड़वा हो गइल हा।”
“आ दूनो गोड़ी के जोड़वा हो गइल हा हो?”
“आ हँ मरदे; आ ऊहो लइका!”
“अरे बाप-रे-बाप! बाड़ा परतापी बाड़े लड़पोछन महाराज हो।”
“आ जान तार?”
“का?”
“ओहिजा कुल्हि मनीस्टर, पुलिस, दरोगा, थानेदार आ तहार तहसीलदरवो उ बिनायक बाबू उनकर गोड़ धरि के पीय तारन स।”
“आहि ए दादा! आ हो रसड़ा के नेतानी केतकी लड़पोछन महाराज के आगे-पीछे डोलत रह तीया।”
“ऊ काहें हो?”
“ओकरा के एम० पी० बने के नू बा। आसिरबाद माँग तीया।”
“आ इ बताव; ओइजा खूब सुघर-सागर मेहररुओ आवलीन स नू?”
“हँ महाराज। चलब कि अहिये पर गरई पकड़त रहब। आ लारि टपकावत रहब।”
“त चल।”
“ओइजा एक-से-बढ़ि-के-एक जिलाहिलावन चीजुइया देखे के मिली।”
● एकर बाकिर हिसवा फेर कबो।
(सर्वाधिकार सुरक्षित― आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; ७ फ़रवरी, २०२३ ईसवी।)