सरकारी चरणामृत चाटता बुद्धिजीवी!

● आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय

बेशक,
तुम्हारे चिन्तन चुराये हुए हैं।
तुम्हारे विचार दिल्ली के आज़ाद मार्केट से
किलो के भाव लाये हुए कपड़ों-जैसे हैं।
किसी कोठे के किराये की कोख से जन्मे
वा फिर परखनली में उपजे,
तुम्हारे वे शब्द हैं,
जिन्हें पक्षाघात ने जकड़ लिया है।
कोई थिरकन नहीं?
प्रतिक्रिया-रहित, संवेदना-शून्य;
ठहरा-ठिठुरा, सहमा-सकुचा;
बूढ़े और जर्जर वयोवृद्ध,
भारतीय लोकतन्त्र की तरह दिखता,
तुम्हारा शब्द-जगत्।
दिल्ली के ग़ाज़ीपुर मे,
कुतुबमीनार से दिखते,
ऊँचे कबाड़पर्वत से उठाकर–
लायी गयी पिचकी-दरकी लेखनी,
इधर-उधर से मुँह मारकर लायी हुई,
अधूरी और पूर्वग्रहपूर्ण
विसंगतियाँ तो लिख सकती हैं;
कविताओं-कहानियों को माध्यम बनाकर
सर्वहारा-वर्ग की पटकथा तो बना सकती हैं;
पर क्या तुम उनकी आँखों मे आँखें डाल,
आँसू की शिकायत के पक्ष मे
विद्रोही स्वर सुना सकते हो?
बेशक नहीं।
लिख सकते हो तो लिखो :–
ख़ुद से ख़ुद की लाचारी;
ख़ुद की नपुंसक बने रहने की बीमारी;
ज़ालिम सरकारों के फेंके–
टुकड़े लपकने की तैयारी;
स्वयं के भीतर का खोखलापन;
अपनी बुद्धिजीविता का अधूरापन।
तुम्हें ग़लतफ़हमी है,
अपनी/अपने सामर्थ्य पर।
तुम्हारी लेखनी बिक जाती है
पद और पुरस्कार की चाहत मे।
बन्धक हैं, तुम्हारे आक्रामक तेवर
और तुम्हारी सत्ता-महत्ता,
क़ैद हैं, संकुचित स्वार्थ की मुट्ठियों मे!
आज़ाद करा सकते हो;
आज़ाद हो सकते हो;
मुक्त कर सकते हो;
अर्गला से जकड़े,
अपने अपाहिज़ पाँवों को?

(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; ३ जुलाई, २०२३ ईसवी।)