
राघवेन्द्र कुमार त्रिपाठी ‘राघव’–
फरवरी महीने का दूसरा सप्ताह प्रेमियों के लिए होली, दीपावली और ईद से भी कहीं बढ़कर होता है। तरह-तरह के पक्षियों का दाने की तलाश में उड़ान भरते नजर आना मामूली बात है। कोयल भी बिना मौसम छत पर बैठकर तान छेड़ती नजर आती है और साथ ही शिकारी भी शिकार की तलाश में लाठी-डंडे लेकर सड़कों और पार्कों में जाल लगाकर बैठ जाते है।
“कौन किसी को रोक सका सय्याद तो एक दीवाना है, तोड़ के पिंजरा एक न एक दिन पंछी तो उड़ जाना है” की तर्ज पर तरह-तरह के विचारों को मन में समेटे प्रेम-पुजारी अपनी-अपनी देवियों को मनाने में लग जाते हैं। ये प्रेम-दीवाने दीन-दुनिया से अनजान बस एक ही चीज पर अटक जाते हैं; और वह है “प्यार”! दुनियां को भुलाकर एक दूसरे में समा जाने की क़सम खाने वाले ये मोहब्बत के परवाने दो कदम चलकर लड़खड़ाने लगते हैं। आज की युवा पीढ़ी मौज-मस्ती के पीछे भागने वाली है। जीवन-दर्शन का इनके जीवन में कोई मोल नहीं है।
पिछले वर्ष 13 फ़रवरी को हम रेलगाड़ी से लखनऊ-दिल्ली यात्रा कर रहे थे। रास्ते में एक नवयुगल हमारी शायिका के नीचे वाली शायिका पर आकर बैठ गया और गुटरगूं करने लगा। यह कार्यक्रम बड़ी देर तक चलता रहा। मैं कभी नीचे झाँक कर देखता और कभी हाथ में थामे कलम से कुछ लिखने लगता। मेरी बढ़ी हुई दाढ़ी के फेर में आकर उस नवयौवना ने मुझसे कहा; अंकल जी आप बार-बार नीचे क्या ताक-झांक कर रहे हैं? क्या कभी कुछ देखा नहीं है? मैंने कुछ सोचते हुए कहा, देवी जी! देखा तो बहुत कुछ है, पर जो देख रहा हूँ वह शायद हमारे लिए कुछ नया है। इसी बीच देवी के पुजारी बोल पड़े अंकल क्या नया है?
मैंने मन ही मन सोचा कि जब अंकल बन ही गए हैं तो शामिल हो जाते हैं इन बच्चों की प्रेमलीला में। तभी देवी जी की मधुरवाणी कानों में पड़ी, कहाँ खो गए अंकल जी! किसी की याद आ गयी क्या? मैंने कहा नहीं देवी जी! हमारे ज़माने में ये सब नहीं होता था। आपके ज़माने में क्या होता था अंकल! अभी-अभी बने हमारे भतीजे ने पूछा। मैंने कहा बेटा! हमारे ज़माने में तो लड़की से बिना मिले, बिना देखे शादियाँ हो जाती थीं। बिना मिले, बिना जाने कैसे कोई किसी से शादी कर सकता है, देवी जी! ने कहा? मैंने लड़की से लड़के की ओर इशारा करते हुए कहा; जानती हो इसे! उसने कहा हाँ अभी चार दिन पहले ही तो ‘प्रपोज डे’ पर इसने प्रपोज किया था। मैंने पूछा इसने प्रपोज किया और पहले से जाने बिना आपने हाँ कह दिया। इस पर उस लड़की ने कहा, हम अभी शादी थोड़ी न करने जा रहे हैं। मैंने कहा जो अभी हो रहा था; फिर वह सब! अब बारी भतीजे की थी, सो उसने कहा आज ‘किस’ डे है… किस डे, जानते हो न।
मैंने कहा हाँ जानता हूँ और भूल भी कैसे सकता हूँ इन दिवसों को! जिन्होंने गणतंत्र दिवस और स्वतंत्रता दिवस से उनकी रौनक छीन ली है। राष्ट्रीय दिवसों पर अवकाश होते हुए भी कभी हमारे देश के युवा कर्णधार किसी बलिदानी की समाधि पर सिर झुकाने नहीं जाते। ध्वजारोहण तो जानते ही नहीं। लेकिन गणतंत्र दिवस के ठीक 12 दिन बाद शुरू होने वाले प्रेम-सप्ताह को महापर्व बना देते हैं।
वैसे मीडिया ने भी इस क्षेत्र में काफ़ी सराहनीय काम किया है। एक से बढ़कर एक जानकारियाँ और नुस्खे बताकर इन प्रेमांधों को पथ-दलित करने का काम किया है। इसी टीवी ने राष्ट्रीय पर्वों को शॉपिंग डे बनाकर रख दिया है। बलिदान-स्मारकों में सन्नाटा चीख-चीखकर आज की पीढ़ी की उदासीनता को बयां करता है। एक से एक व्यापारिक संस्थाएँ वैलेंटाइन डे कार्यक्रमों की श्रंखला का आयोजन करती हैं, लेकिन कभी भी स्वाधीनता दिवस पर इस तरह के कार्यक्रम नहीं करतीं। माँ के लिए कभी 200 रुपये की साड़ी नहीं लेने वाले युवानों का वैलेंटाइन डे पर 500 रुपये का गुलाब भेंट करना हलकी सी बात है।
एक ही सप्ताह में दोस्ती से प्यार तक का सफर तय करने वाले ये प्रेमपुजारी, यह नहीं जानते कि जल्दबाजी में बनाया घर, तेज हवाएं भी नहीं झेल पाता; फिर तूफानों को क्या झेलेगा? वैलेंटाइन डे तो मनाते हैं लेकिन वैलेंटाइन कौन थे जानने का प्रयास नहीं करते? प्यार वाकई अन्धा होता है। वैसे भारत का भविष्य भी अन्धेरे में ही है। आज का युवा इस वैश्विक महापर्व वैलेंटाइन डे को “वन नाईट स्टैंड” के रूप में मनाता है और फिर अगले साल की तैयारी में जुट जाता है, नये रूप में नयी उम्मीद के साथ।