भ्रष्टतन्त्र का मूक गवाह

● आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय
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मै भारत का लोकतन्त्र हूँ,
जिह्वा बनकर रह गया हूँ।
मुझे,
उबड़-खाबड़, बदबूदार दाँतों ने
अपने पहरे मे बैठा रखा है।
बायें सरकता हूँ तो संकट;
दायें मचलता हूँ तो ख़तरा;
ऊपर लपकता हूँ तो आफ़त;
नीचे लर्ज़ता हूँ तो जोख़िम।
अजीबो ग़रीब मुसीबत से ग़ुज़रता।
मै,
ठिठक कर रह गया हूँ!
आदमक़द से दिखते हैवान,
मेरे चेहरे को खरोंच-खरोंचकर,
मनचाहे रूप मे तब्दील करते शैतान;
बार-बार रूप-परिवर्त्तन करने का कुचक्र,
मेरा अपना वुजूद
अपने होने की तलाश मे,
दर-दर भटकता फिर रहा है।
भेड़िये-से दिखते इन्सान,
खद्दर की मर्यादा के साथ
भीषण बलप्रयोग करते;
मुझे नोचते-खसोटते-बकोटते;
राजनीति के हर चौराहे पर,
ख़ून के घूँट पिलाते आ रहे हैं।
मेरा सहोदर गणतन्त्र,
संविधान के प्रस्तावना और मौलिक अधिकारोंवाले पन्नो को बटोरकर,
उन्हें खोली का रूप देकर,
उसमे हाथ-पैरों को सकुचाये
अपनी पहचान छुपा रहा है।
उसे स्वयं पर लज्जा आती है,
वह हर बार,
संविधान के रखवालों-द्वारा
अपने विधि-विधान के साथ
किये जा रहे अपमान को,
पीता आ रहा है,
ख़ून की घूँट की तरह।
ज़िम्मादार लोग,
कितने बौने हो चुके हैं!
पद और गोपनीयता की शपथ,
मानो किसी परचून की दुकान से ख़रीदे हुए दो रुपये का गुटखा हो,
खाया, चबाया और पिच् से थूक दिया।
मेरा अग्रज गणतन्त्र
रोकर भी रो नहीं पाता।
हर छब्बीस जनवरी को
वह भूखा सो जाता है,
किसी अभाव मे नहीं,
लाल क़िले के प्राचीर से
आश्वासन के नाम पर,
थूकते और चाटते रहने की बीभत्स प्रवृत्ति को देखकर।
मै लोकतन्त्र हूँ, भारत के भौगोलिक, ऐतिहासिक एवं राजनैतिक मानचित्रों के छलावे का गवाह।
सारे कुकर्मो का साक्षी जो हूँ।
पचहत्तर सालों तक पुरानी खटिये पर वय-वार्द्धक्य के साथ लेटे-लेटे, खाँसते-खाँसते,
अनकही-अनदेखी-अनसुनी रोग का शिकार हूँ।
मै नंगे-लुच्चे शरीफ़-से दिखते,
चतुर मूर्खों के स्पर्श से कलंकित,
भारत का लोकतन्त्र हूँ।

(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; २१ जून, २०२३ ईसवी।)