आरती जायसवाल (कथाकार, समीक्षक)
सांप्रदायिकता की आग तेज हुई
फिर लपटें उठीं,
धू -धू कर जली मानवता,
फिर हो गया सामान्य जन-जीवन अस्त -व्यस्त और त्रासदी पूर्ण
कुछ स्थानों पर
चीत्कार कर उठा ‘अधर्म’
चिंघाड़ता हुआ लेने को ‘नरबलि’
मृत देहों के ढेर पर उग आई राजनीति
हिंसक घटनाओं की खाद पाकर
बढ़ने लगी सत्ता की फ़सल
‘उन्होंने नहीं रोका जो रोक सकते थे
यह विनाश’
क्योंकि वे हैं सत्तालोलुप, रक्तपिपासु।
उन्हें देनी होती है
‘कुटिल सांत्वना,अतिरिक्त सुविधा,धनराशि व पीड़ितों के लिए करनी होती हैं लोकलुभावन घोषणाएं’
जिन्हें सुनकर
जानबूझकर बनाए गए पीड़ित
भूल जाते हैं अपनी पीड़ा करने लगते हैं; जय – जयकार !
उनकी मूर्खता पर
कलयुग के नरपिशाच करते हैं अट्टहास और उगाते हैं सत्ता की फ़सल।
यद्यपि;पीड़ित पैदा करने के स्थान पर वे कर सकते हैं ‘अच्छे को और अच्छा,बहुत अच्छा ,सबसे अच्छा’
वे जानते हैं कि वे खोल सकते हैं
‘खुशियों के द्वार ‘करुण- क्रंदन के स्थान पर,
‘उठा सकते हैं धर्मध्वज गर्वपूर्वक
साकार कर सकते हैं रामराज्य की परिकल्पना’
कर सकते हैं असुरों का वध
किन्तु ;नहीं-नहीं ,कभी नहीं
वे पालते हैं अधर्म के दैत्य जो कभी भी निकाले जा सकें आवश्यकतानुसार
और मचा सके अनावश्यक तबाही।
सुनो !उठो,जागो हे जन-मानस!कोई बन जाओ राम ,कोई बन जाओ चंडी दुर्गा !
उठाओ शस्त्र और अधर्म पर लगाओ पूर्णविराम।
समूल नाश करो ऐसे सत्तालोलुपों का जो ‘विनाश को दूसरों पर मढ़कर सिर्फ विकास का उत्तरदायित्व लेते हैं।’