“ध्यान रहे सावित्री सदैव सत्यवान को ही वरण करती है, शक्तिमान को नहीं।”
प्रश्न-
क्या कोई ऐसी भी स्थिति है मन की जब पॉजिटिव व नेगेटिव एक हो जायें।
द्वैत अद्वैत में कोई भेद न हो?
कृपया मार्गदर्शन करें।
उत्तर-
अजीब बात है।
ऐसी बात करना तो बौद्धिक कमजोरी का ही लक्षण है..!
अथवा धूर्तता ही इसका मूल कारण है।
एक ही डिब्बे में प्रकाश और अन्धकार दोनों एक साथ भरने की चेष्टा करने वाला व्यक्ति या तो मूर्ख होगा या धूर्त।
वास्तव में ये बातें भिन्न भिन्न समय में एक ही व्यक्ति की दो अवस्थाएं हो सकती हैं।
दो में से किसी अवस्था में कोई व्यक्ति होता ही है-
पॉजिटिव या नेगेटिव।
अर्थात् सज्जन या दुर्जन, ईश्वर या शैतान, देवता अथवा दैत्य, सही अथवा गलत..!
किन्तु धूर्त लोग बड़े ही चालाक हैं।
वे लगातार पाप करते हैं फिर डर से कुछ पुण्य भी कर लेते हैं।
तो उन्हें स्वयं के बारे में एक साथ पापी और पुण्यात्मा होने का भ्रम उत्पन्न हो जाता है।
और अपनी इसी दशा को वे दुष्ट लोग परम सिद्ध अवस्था मान लेते है तथा दूसरों को भी दिग्भ्रमित करते हैं।
प्रायः अच्छे लोग भी ऐसे धूर्तों द्वारा दिग्भ्रमित हो जाते हैं।
भटके हुए लोग ही अब तक दुनिया को भटकाते रहे हैं।
और भयंकर दुःख उठाते रहे हैं।
समाज में हज़ारों वर्षों का कचरा भरा पड़ा है।
मौजूदा विवेकशील युवापीढ़ी को कुछ समय तो लगेगा ही इसे साफ़ करने में।
ध्यान रहे ईगो स्वार्थी होता है।
अहंकारी व्यक्ति केवल अपने लिए कार्य करता है।
केवल अपने हितों की चिंता करता है।
दूसरों के दुःख दर्द को अनुभव नहीं करता।
दूसरों के हितों की रक्षा के लिए फिक्रमंद नहीं होता।
इन लक्षणों से ही इन सबकी पहचान होती है।
जिनमें अहंकारी व्यक्ति के लक्षण नहीं दीखते तथा जो लोग दूसरों के हितों की रक्षा के लिए सदैव तत्पर हैं।
वे सब सज्जनों के साथ हैं।
वरना तो रावण और सूर्पनखा जैसे लोग भी हैं दुनिया में जो केवल अपने स्वार्थों में ही रत हैं निरंतर।
वे लोग दूसरों की सेवा भी करते हैं तो किसी अपनी ही गणित से।
समाजसेवा में भी पाखंड।
जिन्हें ‘देश’ शब्द की परिभाषा भी ज्ञात नहीं है।
वे देश का हित कैसे चाहेंगे..?
यह सब निगेटिव-पॉजिटिव के एकिकरण की बात केवल बदमाशी है।
दोष और गुण कभी एक नहीं हो सकते।
इस बात का न्याय से कोई सम्बन्ध नहीं।
यह केवल पाखंड है समाजसेवियों का।
अहंकार की तृप्ति के लिए और
दूसरों को पागल बनाने के लिए वे ऐसी बातें करते हैं।
राम की पूज्यता राम के लिए नहीं होती।
बल्कि राम की सत्यता के लिए होती है।
अतः राम की भी जो बात सत्य न हो वह पूज्य नहीं हो सकती।
लेकिन रावण और सूर्पनखा को यह बात समझ में नहीं आ सकती।
गलत और सही के एकीकरण की बात करने वाले दुर्गुणों या दोषों से भरे हुए व्यक्ति किसी के सच्चे मित्र नहीं होते।
वे केवल निजी महत्त्वाकांक्षाओं के दास होते है।
वे अपने दोषों को छिपाने के लिए ही ऐसी पाखंडपूर्ण बातें करते हैं।
ब्रह्म तो सत्य है।
ब्रह्म को शक्ति के रूप में उपासना करने वाले ही जीवन और जगत को नर्क बनाते हैं।
शक्ति तो माया है, ब्रह्म नहीं।
ब्रह्म केवल सत्य ही है।
अंतिम विजय भी केवल सत्य की होती है शक्ति की नहीं।
सत्यमेव जयते कहा गया है शास्त्रों में।
शक्तिमेव जयते कहीं नहीं लिखा है।
लेकिन दुर्जनों को सत्य प्रिय नहीं होता।
दुर्जन लोग शक्ति की ही उपासना करते हैं।
वे माया को ही पूजते हैं ब्रह्म को नहीं।
लेकिन शक्ति को केवल सत्य प्रिय है। शक्ति सदैव सत्य का ही वरण करती है।
इसलिए शक्ति के बड़े बड़े उपासक हार जाते हैं। रावण कंस दुर्योधन सब हार गए सत्य के समक्ष।
सज्जनों को ही सत्य प्रिय लगता है।
ध्यान रहे सावित्री सदैव सत्यवान को ही वरण करती है शक्तिमान को नहीं।
इसलिए विजय सत्य की ही सम्भव है शक्ति की नहीं।
क्योंकि शक्ति को विजय प्रिय नहीं है शक्ति को तो केवल सत्य ही प्रिय है।
अतः सदैव सत्य ही उपास्य है।
बोलो सत्यं शरणं गच्छामि।
(राम गुप्ता, स्वतंत्र पत्रकार, नोएडा)