इन दिनो इलाहाबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय के विज्ञानसंकाय-परिसर के एक कोने मे स्थित ‘विज्ञान परिषद्’ विवाद के केन्द्र मे आ चुका है, जिसके कारण इलाहाबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय-प्रशासन ने ‘विज्ञान परिषद्’ भवन को अधिगृहीत करने का निर्णय किया है। इसी संदर्भ मे भाषाविज्ञानी, विज्ञान-शब्दकोश, विश्व विज्ञानकोश (एन्साइक्लोपीडिया) तथा शताधिक वैज्ञानिक पुस्तकों के लेखक एवं विज्ञानलेखन के क्षेत्र मे ‘डॉ० मेघनाद साहा पुरस्कार, डॉ० बीरबल साहनी पुरस्कार तथा अन्य वैज्ञानिक पुरस्कारों से सम्मानित आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय ने ‘विज्ञान परिषद्’ के पदाधिकारियों को कठघरे मे खड़े करते हुए कहा है कि जिस ‘विज्ञान परिषद्’ की स्थापना डॉ० गंगानाथ झा, रामदास गौड़, हमीदुद्दीन तथा पं० सालिगराम भार्गव ने अपने सम्मिलित प्रयास से वर्ष १९१३ मे भारतीय भाषाओं मे विज्ञान-लेखन करने, वैज्ञानिक विचारधारा का प्रचार-प्रसार करने, वैज्ञानिक अध्ययन और वैज्ञानिक अनुसंधान-कर्म को प्रोत्साहन देने तथा वैज्ञानिक समस्याओं पर विचार-विमर्श करने के उद्देश्य से करायी थी, अब उसका दूर-दूर तक कोई अता-पता नहीं है। पहले व्यापक स्तर पर वैज्ञानिक अधिवेशन होते थे, जिसकी शुरूआत ३१ मार्च, १९१३ ई० को हुई थी। उसके बाद कुछ ही अधिवेशन हुए, फिर सबकुछ ठण्डा रहा। अप्रैल, १९१५ ई० मे एक हिन्दीविज्ञान-पत्रिका ‘विज्ञान’ प्रकाशित की गयी थी, जो अब दिखती ही नहीं। इतना ही नहीं, एक अनुसंधान पत्रिका भी प्रकाशित होती थी।
‘विज्ञान परिषद्’ मे वर्षों तक सक्रिय रहे आचार्य पाण्डेय ने आरोप लगाते हुए कहा है कि ‘विज्ञान परिषद्’ के दो-चार पदाधिकारी ऐसे हैं, जो इस संस्थान को अपने घर की खेती समझते आ रहे हैं। यही कारण है कि वर्ष १९५९ से अब तक डॉ० शिवगोपाल मिश्र ‘विज्ञान’ के सम्पादक बने हुए हैं। इतना ही नहीं, डॉ० मिश्र वर्ष १९७७ से अब तक ‘विज्ञान परिषद्’ के प्रधानमन्त्री’ की कुर्सी पर कुण्डली मारे बैठे हुए हैं। वे विज्ञान परिषद् के अध्यक्ष भी हैं। उनके एक-दो सहायक ऐसे हैं, जो उनके घरेलू कामो मे हाथ बँटाते आ रहे हैं; उनकी सेवा-शुश्रूषा करते आ रहे हैं और उनकी कृपा से पदाधिकारी बने बैठे हैं। उस परिषद् मे विश्वविद्यालय और महाविद्यालयों के कुछ प्राध्यापकों ने अपनी शरणस्थली बना रखी है। इससे ज़ाहिर होता है कि विज्ञान परिषद् मे उन्हीं लोग को स्थान दिया गया है, जो डॉ० शिवगोपाल मिश्र की ‘हाँ मे हाँ’ करते रहें और उन्हें अध्यक्ष और प्रधानमन्त्री बनाने के लिए उनके पक्ष मे हाथ उठाते रहें। इतना ही नहीं, विज्ञान परिषद् को व्यक्तिगत आय का स्रोत बना दिया गया है। परिषद्-परिसर का मैदान, भीतर का बृहद् सभागार तथा एक लघु सभाकक्ष मे बाहरी संस्थाओं, समुदायों, संघटनो के विविध आयोजन तथा वैवाहिक कार्यक्रम होते रहे हैं, जिनके किराया की बड़ी धनराशि परिषद् के पदाधिकारी लेते आ रहे हैं। गेस्ट हाउस का भी व्यावसायीकरण किया जाता रहा है। उन धनराशि का हिसाब-किताब कहाँ है, यह गम्भीर रूप से जाँच का विषय है। डॉ० मुरलीमनोहर जोशी जब मानव संसाधन विकास मन्त्री थे तब प्रत्येक वर्ष और समय-समय पर बहुत बड़ी धनराशि अनुदान के रूप मे परिषद् को उपलब्ध कराते थे। उन धनराशि का हिसाब किसके पास है, यह भी जाँच का विषय बन जाता था।
आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय का आरोप है कि एकसाथ विज्ञान परिषद् के प्रधानमन्त्री, अध्यक्ष तथा सम्पादक रहते हुए, डॉ० शिवगोपाल मिश्र ‘उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान’, लखनऊ, ‘केन्द्रीय हिन्दी संस्थान’, आगरा की पुरस्कार-समिति मे पुरस्कार-हेतु भेजी जानेवाली पुस्तकों के परीक्षक और संस्तुतिकर्त्ता भी रहे हैं और नियम के विपरीत ‘विज्ञान परिषद्’ के पदाधिकारियों और उनसे जुड़े लोग को अपने हस्ताक्षर से संस्तुति करते हुए, पुरस्कार दिलवाते आ रहे हैं। उन्होंने यह भी आरोप लगाया है कि विज्ञान परिषद् के अधिकारी चाहते ही नहीं थे कि स्थानीय स्तर पर परिषद् के साथ अन्य विज्ञानलेखक जुड़ें। यही कारण था कि आचार्य पाण्डेय ने अपने स्वाभिमान की रक्षा करते हुए, विज्ञान परिषद् से स्वयं को अलग कर लिया था। उन्होंने कई दशक-पूर्व विज्ञान परिषद् के एक राष्ट्रीय आयोजन मे आमन्त्रित तत्कालीन राज्यपाल के सम्मुख परिषद् के पदाधिकारियों पर धाँधली का आरोप लगाते हुए, अपने सम्मान को लेने से साफ़ इन्कार करते हुए बहिष्कार किया था, जिसे देश के कई समाचारपत्रों ने सचित्र प्रकाशन भी किया था। उनका कहना है कि उक्त सभी आरोपों को सिद्ध करने के लिए उनके पास ठोस साक्ष्य हैं। उन्होंने यह भी माँग की है कि विज्ञान परिषद् के पदाधिकारियों के एकाधिकार को देखते हुए, विश्वविद्यालय-प्रशासन परिषद् को अपने अधिग्रहण मे ले और उसकी ठप्प पड़ी गतिविधियों को प्रारम्भ करने के लिए सुयोग्य विषय-विशेषज्ञों की एक कार्य-समिति गठित करे।