काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के कुलपति राकेश भटनागर की निर्लज्जता!

आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय

‘मुक्त मीडिया’ का ‘आज’ का सम्पादकीय

— आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय

यों ही कोई महामना नहीं बन जाता। जिस व्यक्ति ने अपनी झोली फैलाकर जनसामान्य और जनविशेष से एक महत् सामाजिक उद्देश्य की पूर्ति के लिए निर्द्वन्द्व रहकर धन की याचना की थी और अपनी लक्ष्यपूर्ति करने में सफल रहा, वह कितना महान् और परोपकारी रहा होगा, कल्पनालोक का विषय नहीं है। वह तो यथार्थ के धरातल पर संलक्षित हो रहा है, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के रूप में, जहाँ आज लगभग ३५ हज़ार विद्यार्थी अध्ययन करने के लिए जाते हैं। उसी विश्वविद्यालय का यदि वर्तमान कुलपति प्रो० राकेश भटनागर यह कहे,”महामना ने कैम्पस में आम का पेड़ तो लगाया; लेकिन रुपयों का पेड़ लगा जाते तो सब कुछ फ़्री कर दिया जाता” तो उस कृतघ्न कुलपति पर पदप्रहार करते हुए, उसे तत्काल प्रभाव से काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से बाहर कर किसी भी सेवा के लिए अयोग्य सिद्ध कर, उसकी निरंकुशता का परिणाम देना चाहिए था। उस कुलपति का साहस कैसे हुआ कि वह वैश्विक चिन्तक-विचारक महामना मदन मोहन मालवीय जी के लिए एक तुच्छ विषय को लेकर बोल गया। ऐसे लोग ‘कुलपति’ नहीं, ‘कुलघातक’ कहलाते हैं।

विषय केवल इतना था कि १९ अगस्त को विद्यार्थी नियमत: मान्य अपना स्वास्थ्यसुविधा-अधिकार की माँग रहे थे। उनकी माँग थी कि विश्वविद्यालय चिकित्सालय की ओ०पी०डी० में परीक्षण कराने के लिए वहाँ के विद्यार्थियों को निश्शुल्क स्वास्थ्यसुविधा है, जो उन्हें उपलब्ध करानी चाहिए, जबकि कथित कुलपति शुल्क जमा कराने के बाद ही उपचार-सुविधा की बात कर रहा था और इस पर अड़ा रहा। अन्त में, चन्दनटीकाधारी छद्मवेशी राकेश भटनागर की जब छीछालेदर होने लगी तब वह सार्वजनिक रूप से क्षमा माँगने के लिए विवश हुआ और विद्यार्थियों को उनकी निश्शुल्क स्वास्थ्य- सुविधा देने के लिए भी। अब यह समझ लीजिए कि उस चन्दनधारी कुलपति ने क्या कहा। उसने कहा, “महामना हमारे लिए पूज्यनीय हैं।” खेद है, जिस कुलपति प्रोफ़ेसर राकेश भटनागर को यह ही नहीं मालूम– ‘पूज्यनीय’ शब्द शुद्ध है अथवा ‘पूजनीय’, वह ३५,००० विद्यार्थियों का स्वामी बना बैठा है? बार-बार धिक्कार है, इस छद्मवेशी अँगरेज़ी सन्तान को।

काशी (बनारस) हिन्दू विश्वविद्यालय का कुलपति भूल गया था कि यदि महामना ने अपना सौजन्य प्रदर्शित नहीं किया होता तो न आज वह विश्वविद्यालय होता और न ही राकेश भटनागर वहाँ कुलपति होता।

जिस महामना ने ‘हिन्दी-हिन्दू-हिन्दुस्थान’ की भावनात्मक एकता का प्रदर्शन और सुसंघटन समग्र भारतीय समाज के परिप्रेक्ष्य में किया था, उसी ‘हिन्दी’ की दुर्गति उस कथित कुलपति-द्वारा लगातार की जा रही है। यह तथ्य अनेक बार कई स्तर पर सार्वजनिक हो चुका है। उसने हिन्दी-माध्यम में सहायक प्राध्यापकहेतु नियुक्ति के लिए बुलाये गये इतिहास, दर्शनशास्त्र, राजनीतिशास्त्र आदिक विषयों के अभ्यर्थियों से अँगरेज़ी-माध्यम में मौखिक परीक्षाएँ कराये थे, जो कि नियम-विरुद्ध थे। उसके बाद स्वयं को ‘भगवाधारी’ और ‘हिन्दूवादी’ कहनेवाली केन्द्र और उत्तरप्रदेश की सरकारें मौन बनी हुई हैं, जो दोगलेपन को समझने के लिए पर्याप्त है।

(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; २१ अगस्त, २०२० ईसवी।)