एक उलझन

(पहला अंक )

मुझे अफसोस है , कि तुमसे कोई बात कभी कही सुनी होती तो आज ऐसे दौर से न गुजरती । खैर कर ही क्या सकती हूँ ? खिड़की खोलती हूँ कोयले से भरी ट्रक जाती हुई दिखाई देती है । ट्रक की आवाज से जिंदगी में शोर सा है । वरना एक भयावह नीरस । कोई चहल – कदमी नही करता मैं कही ज्यादा जाना पसंद नही करती । और हर दिन ऐसे ही बीता हुआ जा रहा है । मुझे पसंद नही जीवन इतना शून्य हो लेकिन उसकी चर्चा करना भी उचित नही समझती हूँ ; इसलिए नही कि जिंदगी मेरी एक खाली और उदासी से भरी हुई है ,ऐसी जिंदगी से लोग ऊबते है । ये मेरा अपना सोचना है ।

तुम मानने के लिए तैयार नही कई प्रश्न तुम्हारे कौंधते से है, जिसका कोई उत्तर मेरे पास नही है । तुम्हें इस बाद का बेहद तकलीफ है । मैं कुछ कर नहीं सकती निहायत किस्म का उबाऊ सा जबाब पा कर तुम उबल से गये, गुस्से से; तुम कुछ करना ही नही चाहती हो । हाँ यदि ऐसा ही है सच कुछ नही करना चाहती हूं । तुम्हारी सोच एक बेहतर तरीका होगा मुझे इस गहरे उदासी से निकालने के लिए । फिर कोई हलचल नही हुई शरीर निस्तेच चेतन और अचेतन मन मे कोई उद्बोधन नही । जीवन और जीवन की बनाई परिधि से हर पहलू पर विचार करती गई , कही कोई परिणाम नही । सुबह और शाम सिर्फ सूरज के उजाले के साथ अस्त होते रहे । फिर एक दिन …….