लघुकथा : पार्क की घुमक्कड़ी

 अभिरंजन शर्मा (बिहार)-

वो दोनों बेफिक्र हो कर पार्क में घूमते थे। हाल-ए-दिल बयां करते थे। वे हर दिन मिलते थे। बिना किसी डर-भय के। बगल में पुलिस थाना भी था। समाज की हर बंदिशों को तोड़कर वे एक दूसरे के हो जाना चाहते थे। हल्की सी बढ़ी दाढ़ी के साथ वह काफी खूबसूरत दिखता था। तभी तो वो उस पर जान लुटाने की बात करती थी। सबकुछ छोड़कर वो उसकी बन जाना चाहती थी।

उसके लिए वो दुनिया की हर रस्म और रवायत तोड़ देना चाहती थी। वो बस, उसकी हो कर रह जाना चाहती थी। वो चाहती थी कि घर-बार छोड़ दे और बस हमेशा हमेशा के लिए उसकी आंखों में बस जाए। वो हर पल उसके लिए जीना और मरना चाहती थी। दोनों पार्क में बैठते और टहलते। उस नीले आसमान की तरफ निहारते। वो इस दुनिया से दूर अपना ठिकाना बनाना चाहते जहां उन्हें न कोई रोके और न ही टोके। दोनों पार्क में बैठे ये सोच ही रहे थे, तभी कुछ लोग आए और ‘लव-जिहाद’ का नाम देकर बकरे को पकड़ कर मारते – पीटते हुए साथ ले गए। साथ में बैठी बकरी बस मिमियाती रह गई।