“हमे आज संदूषित किये जा रहे शब्दों को पकड़कर सारस्वत सुधारगृह मे रखना होगा, ताकि उनका समुचित परिष्कार हो सके और उनका सात्त्विक शब्दनिधि मे प्रवेश हो सके। वास्तविकता यह है कि हमारा अर्द्धशिक्षित-शिक्षित-सुशिक्षित समाज अपनी भाषा के शुद्ध रूप को ग्रहण करने से कटता आ रहा है। इसे वह अपनी दुर्बलता समझता आ रहा है। हमे अब उस दुर्बलता पर प्रहार करते हुए, उसे ‘सबलता’ की ओर ले जाना होगा। ऐसे मे, शैक्षणिक संस्थानो मे शुद्ध शब्द-प्रयोग पर बल देना, अब आवश्यक हो गया है। आज विद्यार्थी और अध्यापकवर्ग को कर्मशाला के माध्यम से शुद्ध हिन्दी-लेखन का बोध कराना अपरिहार्य हो गया है।”
उपर्युक्त उद्बोधन प्रयागराज से पधारे भाषाविज्ञानी एवं समीक्षक आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय ने मुख्य अतिथि के रूप मे ‘दीनदयाल उपाध्याय राज्य ग्रामीण विकास संस्थान’, बख़्शी का तालाब, लखनऊ के सभागार मे ९ फ़रवरी को आयोजित भाषिक कर्मशाला’ मे किया था; विषय था, ‘शुद्धाशुद्ध हिन्दी-शब्दव्यवहार और उनका मानकीकरण’।
उक्त कर्मशाला मे आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय ने अपरनिदेशक, समस्त उपनिदेशक-सहायक निदेशक संकाय-सदस्य तथा अन्य अधिकारियों को समग्र मे शुद्धाशुद्ध शब्द-प्रयोग के संदर्भ मे व्याकरण और भाषाविज्ञान के अंगोपांग को विस्तारपूर्वक बताया, समझाया तथा उनसे लिखवाया भी। आचार्य ने प्रशिक्षुओं और अधिकारियों के प्रश्नो के सकारण उत्तर दिये और उनकी शब्दप्रयोगगत जिज्ञासा का शमन भी किया।
इस अवसर पर आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय की परम प्रिय शिष्या एवं ए० आर० पी०, बाराबंकी लक्ष्मीराज ने अपने गुरु को लखनऊ के पारम्परिक वस्त्र ‘चिकन का कुर्ता-पाजामा, शुष्क फल (अखरोट, बादाम तथा काजू) एवं ₹२,१०० भेंटकर अपनी ‘गुरुभक्ति’ की अनुकरणीय मूक अभिव्यक्ति की थी।
आरम्भ मे, अपर निदेशक बी० डी० चौधरी तथा सलाहकार― ‘आपदा-प्रबन्धनविभाग’ कुमार दीपक ने पुष्पगुच्छ अर्पित कर, मुख्य अतिथि का अभिनन्दन किया था।
‘भाषापरिष्कार-समिति’ के राष्ट्रीय संयोजक रणविजय निषाद ने मुख्य अतिथि का परिचय प्रस्तुत किया था।
मुख्य अतिथि आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय ने अपनी कर्मशाला के अन्तर्गत परोक्षत: जुड़े संस्थान के सहस्राधिक प्रशिक्षणार्थियों, अधिकारियों तथा कई शैक्षणिक संस्थानो के विद्यार्थियों, अध्यापकों आदिक को एक-एक शब्द को व्याकरणस्तर पर विभाजित कर, उसमे निहित सन्धि, समास, धातुशब्द-रूप, उपसर्ग, प्रत्यय आदिक को बताया और लिखकर समझाया। उन्होंने उन सामान्य शब्द-व्यवहार और वाक्यप्रयोग को सकारण अशुद्ध ठहराया, जिनका आज शिक्षाजगत् मे निस्संकोच प्रयोग किया जा रहा है।
उन्होंने कहा, “भले ही हम हिन्दी का विस्तार कर लें, फिर भी शुद्धता के साथ यदि शैक्षणिक संस्थानो मे उसका व्यवहार नहीं होता है तो वह विस्तार औचित्यहीन है।”
आचार्य ने ‘कवर्ग’ से ‘पवर्ग’ के अक्षरों को सुनाने के लिए कहा तब कोई भी शुद्धतापूर्वक सुना नहीं सका। उन्होंने पंचमाक्षरों :― ‘ङ’, ‘ञ’, ‘ण’, ‘न’ तथा ‘म’ का शुद्ध उच्चारण करते हुए, अपने इस मत का प्रतिपादन किया कि किसी भी पंचमाक्षर पर अनुस्वार का प्रयोग नहीं होगा। उन्होंने कई शब्दलेखन करते हुए, सुस्पष्ट किया कि ‘अर्द्धाक्षर पर कोई भी मात्रा नहीं लगायी जाती। इसके लिए उन्होंने ‘व्यक्ति’, ‘शक्ति’ ‘अन्तिम’, ‘स्पोट् र्स’ इत्यादिक उदाहरण प्रस्तुत किये थे। आचार्य ने अपनी कर्मशाला मे शताधिक शुद्ध शब्दों पर सोदाहरण प्रकाश डाले थे।
आचार्य ने, आज विद्यार्थियों और अध्यापकों के मन मे ‘सं’/’सम्’ उपसर्ग को लेकर उच्चारण और लेखनस्तर पर जिस प्रकार का भ्रम बना हुआ है, उसे दूर किया। इसके लिए उन्होंने ‘संस्कृत’, ‘संधान’, ‘संजय’, ‘संन्यास’, ‘संघर्ष’ इत्यादिक शब्दों के पूर्व मे लगे उपसर्ग ‘सं’/’सम्’ प्रयोग की गम्भीरता को अर्थसहित समझाया। उन्होंने ‘पत्रलेखन’ के प्रारूप से अवगत कराया।
आचार्य ने उन लोग पर खुला प्रहार किया था, जो लोग अनुस्वार और अनुनासिक मे अन्तर न समझते हुए, अपने स्तर से शब्दों का अशुद्ध प्रयोग करते आ रहे हैं, जिसके लिए उन्होंने ‘बच्चे ने उस प्यारे ‘हंस’ को देखकर ‘हँस’ दिया।’ वाक्य लिखकर समझाया। उन्होंने कहा, “आप यदि पक्षी के अर्थ मे ‘हंस’ लिखते हैं और हँसने के अर्थ मे ‘हंस’ लिखते हैं तो आपको कहना होगा― ‘बच्चे ने उस प्यारे ‘हंस’ (हन्स) को देखकर ‘हंस’ (हन्स) दिया।’ इस स्थिति मे सभी ने माना कि हँसने के अर्थ मे ‘हँस’ ही लिखा जायेगा, न कि ‘हंस’; ‘हूं’ के स्थान पर ‘हूँ’ ही लिखा जायेगा। आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय यहीं नहीं ठहरे; उन्होंने उन लोग को जमकर धोया, जो इस बात की वकालत करते आ रहे हैं कि अरबी-फ़ारसी-भाषाओं (समाहार द्वन्द्व समास) मे नुक़्त:/नुक़्ता का प्रयोग उचित नहीं है। इसके लिए उन्होंने दो शब्द लिखे :– (१) जलील (२) ज़लील। उन्होंने कहा, “नुक़्त:रहित शब्द ‘जलील’ का अर्थ है, ‘महान्’; ‘पूज्य’; ‘सम्मानित’ और नुक़्त:सहित ‘ज़लील’ का अर्थ है, ‘कमीना’; ‘अधम’; पापी। फिर उन्होंने पूछा, यदि दोनो को नुक़्त:रहित लिखा जायेगा तो क्या वाचिक और लिखित स्तर पर अपेक्षित अर्थ दिखेगा? अपने इसी प्रयोग के संदर्भ मे उन्होंने ‘जंग-ज़ंग’ शब्दों मे अन्तर को भी समझाया।
सभागार मे बैठे दीनदयाल उपाध्याय राज्य ग्रामीण संस्थान के एक अधिकारी ने मूर्खतापूर्ण प्रश्न किया था। उसका प्रश्न था और सुझाव भी, ” ‘श, ष तथा स’ को हटाकर केवल एक ‘स’ रख दिया जाना चाहिए, कैसा रहेगा?”
आचार्य ने उसके प्रश्न को विखण्डित कर दिया था।
इसी अवसर पर आचार्य ने ‘केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा परिषद्’ (सी० बी० एस० ई०) ‘राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण-परिषद्’ (एन० सी० ई० आर० टी०), ‘राष्ट्रीय हिन्दी-निदेशालय’ तथा ‘तकनीकी शब्दावली आयोग’ के समस्त अधिकारियों तथा पाठ्यक्रम-निर्धारण-समिति के समस्त अधिकारियों और सदस्यासदस्यों को आड़े हाथों लेते हुए बताया, “उन सभी को हिन्दी-व्याकरण की बिलकुल समझ नहीं है। वे सभी हमारी शब्दसम्पदा को विकृत कर, शिक्षाजगत् मे विषैला वातावरण उपस्थित करते आ रहे हैं और देश की सरकार ‘गान्धी जी के तीन बन्दर’-जैसी दिख रही है।”
उक्त संस्थान के मुख्य अधिकारी अपर निदेशक बी० डी० चौधरी का आचरण भी आपत्तिजनक था। पहली बात, संस्था के सर्वोच्च अधिकारी रहते हुए भी उन्हें शुद्धता का किंचित् बोध नहीं था और न ही अपने दायित्व का भी। वे बार-बार यही कहते दिखे, “इसके लिए आपको सरकार को पत्र लिखना चाहिए।” दूसरी बात, उन्हें शुद्ध शब्द को स्वीकार करने मे असुविधा हो रही थी। यही नहीं, वहाँ उपस्थित बहुसंख्य पुरुष अधिकारी कर्मशाला को औपचारिकतामात्र समझ रहे थे, जबकि सभी महिला अधिकारी और संकाय-सदस्या गम्भीरतापूर्वक शब्द ग्रहण कर रही थीं और लिख भी रही थीं।
आचार्य ने फूल-कली का विभेद, महोदय का प्रयोग-रूप, जन्मदिन-जन्मतिथि, जयन्ती, प्रवास-आवास-निवास, आर्ट्स-आट् र्स’, ‘विचार करना-रखना-देना, अप्रवास-आप्रवास-अनिवास, नकारात्मक-सकारात्मक शब्द-संगति, ध्वनि और मात्राविज्ञान, संख्यात्मक उच्चारण, ज़िला-जिला, पूर्वग्रह-पूर्वाग्रह, मिष्टान्न-मिष्ठान्न, आरोपी-आरोपित, सृजन-सर्जन, जागृत-जाग्रत्, विज्ञान-विज्ञानी, रंग-रँग, चिह्न-चिन्ह, लिए-लिये, हंस-हँस, उपरोक्त-उपर्युक्त, प्रावधान-प्रविधान, सावधान, अवधान-व्यवधान-व्यतिक्रम, प्रचण्ड बहुमत-बहुमत-भारी, फ़ल-फल, बहुमत, आया-आयी-आये और आया-आई-आये-आए, बहुत-बड़ा, देना-करना, चाहिए-चाहिये, विविध-विभिन्न, योजक-चिह्न, निर्देशक-चिह्न, कोष्ठक-प्रयोग, उपविरामचिह्न, एकल-युगल उद्धरणचिह्न, सम्बोधनचिह्न, विवरणचिह्न, लघ्वक्षर, पुनरुक्ति-दोष आदिक का वाक्य मे प्रयोग करते हुए समझाया था। प्रशिक्षणार्थियों ने प्रश्न और प्रतिप्रश्न किये थे, जिनके उत्तर-प्रत्युत्तर आचार्य ने दिये थे।
इस आयोजन मे इस संस्थान के अधीनस्थ ५० जनपदीय और क्षेत्रीय अधिकारियों ने सहभागिता की थी।
उपनिदेशक डॉ० सुरेश सिंह ने अभ्यागतगण के प्रति आभार-ज्ञापन किया।
समारोह मे लक्ष्मीराज (ए० आर० पी०, बाराबंकी) डॉ० सुबोध दीक्षित, डॉ० विनीता रावत, डॉ० आशा शर्मा, डॉ० रंजना सिंह, डॉ० एस० के० सिंह, डॉ० संजय कुमार, भानुप्रताप सिंह, डॉ० आलोक सिंह, हेमन्त शर्मा, वाहिद अली, मोहित यादव आदिक उपस्थित थे।