सीता राम चरित अति पावन

उस समय हमारे पूरे मोहल्ले में एक ही टेलीविजन हुआ करता था– ब्लैक एंड ह्वॉइट, लकड़ी का शटर वाला । तब चैनल के नाम पर टीवी पर सिर्फ दूरदर्शन आता था।

रामानंदकृत रामचरितमानस का प्रसारण उन दिनों हर रविवार को आधा घंटे के लिए सुबह 09:30 से 10 बजे तक होता था । उस दिन शहर और कस्बों की सड़कों पर सन्नाटा छा जाता था, अघोषित कर्फ्यू लग जाता। गांव के लोग भी खेती-बाड़ी, चारा-सानी का काम 9:00 बजे से पहले निपटा लेते या बाद का रखते। आखिर राम के नाम से बड़ा और क्या काम हो सकता था।

रविवार के दिन सुबह 9:00 से ही रामभक्तों की भीड़ टीवी के पास जुटने लगती थी। टेलीविजन चौपार (चौपाल) में रखा हुआ रहता था। उस दिन सभी लोग चप्पल बाहर उतार कर पूरे श्रद्धाभाव से चौपार में प्रवेश करते ।

रामायण शुरू होने से 5 मिनट पहले ही टेलीविजन ऑन कर दिया जाता ताकि ऐन मौके पर एंटीना की सेटिंग गड़बड़ न हो जाए। रामायण शुरू होने से पहले तक खूब हो-हल्ला होता रहता, उस दिन क्या दिखाया जाएगा इस पर कयास लगाए जाते। बैठने की उपयुक्त जगह को लेकर भी धक्कामुक्की होती रहती। लेकिन जैसे ही स्वर्गीय रवींद्र जैन के अलौकिक संगीत से सजी -” सीता राम चरित अति पावन” की हृदयस्पर्शी धुन बजती, सब लोग बिल्कुल शांत हो जाते। पिन ड्राप साइलेंस हो जाता।

यह आधे घंटे लोग किसी दूसरी दुनिया में पहुंच जाते थे। भक्ति सागर में गोते लगाते रहते। कभी डूबते, कभी उतराते। किसी दृश्य पर खुश होते, कभी एकदम क्रोधित हो जाते । तो कभी भाव विभोर होकर रोने लगते। आधा घंटों में लोगों की soul purging (आत्मा की शुद्धि) हो जाया करती थी।

हमारे गांव में एक करता नाउनि आजी थी जो पूरे रामायण के दौरान हाथ जोड़े बैठी रहती । बीच-बीच में भावुक होकर कभी रोने लगती, कभी सिर झुका कर प्रणाम करने लगती। उनके लिए रामायण केवल धारावाहिक न होकर, साक्षात भगवान राम का दर्शन करने जैसा था। उनसे बड़ा रामभक्त पूरे गांव में न था।

केवल शुद्ध व्यवसायिक दृष्टिकोण से हॉलीवुड मूवी से कॉपी करके, सैकड़ों करोड़ लगाकर, VFX जैसी आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल करके बनाई गई आदिपुरुष हो सकता है समाज के नव युवा वर्ग को पसंद आ जाये। चूंकि मूवी भी वही ज्यादा देखते हैं , इसलिए हो सकता है यह हिट भी हो जाये।

लेकिन घटिया पात्र चयन और अत्यंत घटिया संवादों से लैस यह कार्टून टाइप फ़िल्म चाहे जितने भी करोड़ कमा ले , लेकिन इस तथाकथित रामकथा को देखने के लिए कोई व्यक्ति श्रद्धाभाव से स्वयं ही चप्पल नहीं उतारेगा
और

कोई करता नाउनि हाथ जोड़कर रामायण नहीं देखेगी, भावविभोर नहीं होगी।

(आशा विनय सिंह बैस)