● आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय
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हम दीर्घकाल से देखते-समझते आ रहे हैँ कि दीप-उत्सव ‘दीपावली’ के अवसर पर भारतीय समाज आज भी भ्रम की स्थिति मे बना हुआ है। इसका मुख्य कारण है, ‘दीपावली’ त्योहार और उसके साथ जुड़े कई शब्द-प्रयोग का भ्रान्तिपूर्ण प्रयोग किया जाना। अब ऐसी स्थिति हो गयी है कि उन शब्दोँ मे से कौन-से शब्द शुद्ध हैँ और क्योँ? इन प्रश्नो के उसे संतोषप्रद उत्तर प्राप्त नहीँ होते।
हम आज इस प्रकाशमय त्योहार के अवसर पर ‘दीपावली’ के साथ जुड़े लगभग सभी शब्दोँ के प्रयोग-औचित्य पर कारणसहित सार्थक विचार करेँगे।
जैसाकि हमे ज्ञात है कि जिह्वा पर जैसे ही ‘दीपावली’ शब्द आता है वैसे ही आँखोँ के सामने कुम्हार की चाक पर चढ़े माटी के लोँद एवं उसे ‘दीया’ का आकार देते हुए, कुम्हार के कलात्मक हाथ दिख जाते हैँ। इस अवसर पर ‘दीपावली’ शब्द को सार्थक करता ‘दीप’ यानी ‘दीया’ शब्द का क्रम सबसे पहले आता है। भारतीय समाज मे ऐसे बहुसंख्यजन हैँ, जो आज तक यह नहीँ जान और समझ पाये हैँ कि ‘दीया’ शब्द उपयुक्त है वा ‘दिया’ शब्द, फिर क्योँ। यह भ्रम एवं पाल-पोसकर बड़ा किया जा रहा वैचारिक धुन्ध इस विवेचनात्मक और विश्लेषणात्मक लेख को पढ़ने के बाद छँट जाना चाहिए, ऐसा विश्वास है। हमारे देश के कई स्वनामधन्य कवि-कवयित्रीवृन्द ने पूर्वग्रह (यहाँ ‘पूर्वाग्रह’ अशुद्ध है।) पाल रखा है, जिसका परिणाम होता है कि ‘दीपक’ के अर्थ मे उनकी कविताओँ मे ‘दिया’ और ‘दिये’/ ‘दिए’ का प्रयोग साफ़ दिखता है, जोकि अर्थहीन होता है। आश्चर्य तब और होता है जब ऐसे जन को बताने-समझाने के बाद भी उनकी आँखेँ ‘कुम्भकर्णी’ बनी रहती हैँ। ‘दीया’ के बाद क्रमश: ‘वर्तिका’ (बाती), ‘तैल’ वा ‘घृत’, ‘दीयासलाई’, ‘प्रज्वलन’ तथा ‘दीपावली’ की बारी आती है।
तो आइए! हम एक-एक शब्द को खँगालते हुए, उसके भीतर की सच्चाई को समाज के सम्मुख प्रस्तुत करेँ, जिससे कि समाज शब्द-व्यवहार के ‘सच’ को समझते हुए, अपने ज्योति-त्योहार ‘दीपावली’ को सार्थक कर पाये।
● दीया-दिया :– ‘दीपक’ के अर्थ मे बहुसंख्य लोग ‘दिया’ का प्रयोग करते हैँ, जबकि ‘दीया’ का ही प्रयोग होना चाहिए। ‘दीया’ संज्ञा का शब्द है। हमे जानना होगा कि वर्तिका (बत्ती)/-तैल (तेल)/(घृत) घी से युक्त मृत्तिका (मिट्टी) के एक लघु पात्र को ‘दीया’ कहते हैँ।
‘दीया’ शब्द ‘दीप’ का तद्भव है। ‘दीप’ की उत्पत्ति जिस धातु से होती है, वह ‘दीप्’ है, जिसका अर्थ ‘चमकना’ है। इस धातु मे ‘क’ के योग से ‘दीप’ शब्द की रचना होती है। यह शब्दभेद के विचार से संज्ञा का शब्द है तथा लिंग की दृष्टि से पुंल्लिंग-शब्द। इस ‘दीप्’ धातु से ‘दीपक’ शब्द का भी सर्जन होता है। इसके लिए ‘दीप्’ धातु मे दो प्रकार के प्रत्यय जोड़े जाते हैँ। पहला प्रत्यय ‘णिच्’ है और दूसरा ‘ण्वुल्’, जिसके जुड़ते ही ‘अक’ की ध्वनि निर्गत होती है। इस ‘दीपक’ का स्त्रीलिंग-शब्द ‘दीपिका’ है। लघु दीप को ‘दीपिका’ कहते हैँ। संध्या के समय गायी जानेवाली एक रागिनी का नाम भी ‘दीपिका’ है।
इसी दीया से ही ‘दीयासलाई’ की रचना हुई है। भारतीय समाज मे इस ‘दीयासलाई’ का प्रयोग ‘दियासलाई’ की वर्तनी (अक्षरी) और नाम से जाने कब से किया जा रहा है; परन्तु उस शब्दप्रयोग के औचित्य पर हमारे देश के वैयाकरण (व्याकरणाचार्य), भाषाविद्, भाषाविज्ञानी, भाषाविद् एवं अध्यापिका- अध्यापकवर्ग आज तक विचार नहीँ कर पाये हैँ, जो कि शोचनीय स्थिति है। आप सब सुस्पष्ट समझ लेँ कि ‘दियासलाई’ अनुपयुक्त शब्द है; ‘दीयासलाई’ उपयुक्त शब्द है। ‘दीयासलाई’ को ‘माचिस’ भी कहा जाता है, जोकि आंग्ल (अँगरेज़ी)-शब्द ‘मैचेस’ का अपभ्रंश-शब्द है। आज यही ‘माचिस’ शब्द जनप्रचलित हो चुका है।
अब ‘दीया’ के प्रयोग को समझेँ। आप यदि कहते हैँ– ‘दीया’ जल रहा है।’ तो आपका वाक्य अशुद्ध और अनुपयुक्त कहलायेगा; क्योँकि ‘दीया’ नहीँ जलता, दीये मे रखी गयी वर्तिका (बाती) जलती है। हम आज भी गाँवोँ मे यह कहते सुनते हैँ :– दीया-बाती कर आओ।
दीया के अर्थ मे स्थानिक प्रयोग ‘दियरा-दियरी’, ‘दियवा-दिअली’, ‘दियला’ भी होते हैँ। छोटा दीया ‘दियरी’ और बड़ा दीया ‘दियरा’ कहलाते हैँ। भोजपुरी मे प्रयोग मिलता है– ‘जा बबुआ! दुअरा आ डेरा पर दीया-बाती करि आव।’ वहाँ अशुद्ध शब्द-व्यवहार भी होता है; जैसे– ‘जा ए बबुनी! ‘दियरी आ दियरा’ जराइ आव।’
जो भी लोग ‘दीया’ (दीपक) के अर्थ मे ‘दिया-दिये-दिए’ का प्रयोग करते आ रहे हैँ, उन सबको अपने इस शब्दप्रयोग के प्रति सजग और सतर्क हो जाना चाहिए; क्योँकि उनका प्रयोग अशुद्ध और अनुपयुक्त तो है ही, घोर आपत्तिजनक भी; क्योँकि समाज को दिशा दिखानेवाले ही लोग शब्दप्रयोग के प्रति अशुद्धता को धारण करेँगे तो समाज मे कैसे सुधार हो पायेगा?
ज्ञातव्य है कि ‘दिया’ क्रिया का शब्द है, जिसका ‘देने’ के अर्थ मे व्यवहार होता है।
जैसे–
१– मैने उसे एक फल ‘दिया’।
२– उसने मुझे दो गेँद ‘दिये’।
● वर्तिका :– यह संस्कृत-भाषा से उत्पन्न शब्द है और शब्द-भेद की दृष्टि से विकारी संज्ञा-शब्द। लिंग-प्रकारानुसार यह स्त्रीलिंग का शब्द है। ‘वर्तिका’ की रचना को समझने के लिए पहले ‘वर्तिक’ को समझेँ। यह ‘वृत्त्’ धातु का शब्द है, जिसका अर्थ है, ‘वर्तमान रहना’। ‘बटेर’ का तत्सम शब्द भी ‘वर्तिक’ कहलाता है। उक्त धातु मे जैसे ही ‘टाप्’ प्रत्यय जुड़ता है वैसे ही ‘वर्तिका’ शब्द का सर्जन (‘सृजन’ शब्द अशुद्ध है।) होता है। कुछ लोग ‘सर्जन’ शब्द को अँगरेज़ी-शब्द ‘सर्जन’ से जोड़कर देखते हैँ, जोकि पूर्णत: अनुचित कृत्य है। बत्ती को ‘वर्तिका’ कहते हैँ, जो कि ‘बत्ती’ का तत्सम शब्द भी है।
आशा है, आपने ‘दीया’ और ‘दिया’ का अर्थ एवं उनमे अन्तर को सोदाहरण समझ लिया होगा। हमने ‘दीया’ मे रखकर जलायी जानेवाली ‘वर्तिका’ (बाती) का भी शुद्ध अर्थ और प्रयोग को जान लिया है। हम अब उन साधनो का अर्थ ग्रहण करेँगे, जिनमे ‘वर्तिका’ को भिगोया वा लपेटा जाता है, जिससे बाती जलायी जाती है। हम इसके लिए सबसे पहले ‘तैल’ (तेल) शब्द पर विचार करेँगे।
● तैल :– हम जिसे ‘तेल’ कहते हैँ, वह अशुद्ध शब्द है। उसका शुद्ध शब्द ‘तैल’ होता है। तेल ‘तैल’ का विकृत रूप है एवं तद्भव शब्द भी। ‘तैल’ शब्द संस्कृत-भाषा से निर्गत हुआ है। यह शब्द-भेद के विचार से संज्ञा का शब्द है तथा लिंग की दृष्टि से पुंल्लिंग कहलाता है। हम अब ‘तैल’ शब्द की उत्पत्ति पर विचार करेँगे। जब ‘तिल’ शब्द मे ‘अञ्’ प्रत्यय जुड़ता है तब ‘तैल’ शब्द की उत्पत्ति होती है। अल्पसंख्यजन ‘तैल’ का शाब्दिक अर्थ जानते होँगे। वास्तव मे, ‘तैल’ का शाब्दिक अर्थ है, ‘तिल से सम्बन्धित’। तैल/तेल उसे ही कहा जायेगा, जिसे तिल के दानो को पेरकर निकाला जाता है। ‘तिल’ का माहात्म्य (‘महात्म, महात्म्य’ अशुद्ध हैँ।) दान, तर्पण, होमादिक करने का है।
हम अब दूसरे साधन ‘घृत’ (घी) का बोध करेँगे।
● घृत :– आप ‘घृत’ को समझेँ। यह ‘घृ’ धातु का शब्द है, जिसका अर्थ ‘सीँचना’ है। इसी धातु मे ‘क्त’ प्रत्यय के योग से ‘घृत’ की रचना होती है। ‘घृत’ शब्द ‘घी’ का तत्सम रूप है। ‘घृत’ संस्कृत-भाषा का शब्द है, जोकि संज्ञा का स्त्रीलिंग-शब्द है।
महाकवि वृन्द कहते हैँ, “सीधी अँगुरी घी जम्यो क्योँहूँ निकसति नाहिँ।”
प्राकृत मे इसे ‘घीअ’ और भोजपुरी मे ‘घीव’/’घीउ’ कहते हैँ। यह एक प्रकार का खाद्य- पदार्थ है, जिसे मक्खन को तपाकर बनाया जाता है। यह वर्तिका-प्रज्वलन (‘प्रज्ज्वलन और प्रज्जवलन’ अशुद्ध हैँ।) करने के लिए भी उपयोगी है। इसका एक भिन्न अर्थ ‘पानी’ भी है।
हमने ‘दीया’, ‘वर्तिका’, ‘तैल’, ‘घृत’ का ज्ञान प्राप्त कर लिया है, साथ ही ऐसा उद्यम कर लिया है कि अब दीया जलाना शेष रह गया है। हमे इसके लिए ‘प्रज्वलन’ शब्द के साथ जुड़ना होगा।
● प्रज्वलन :– प्राय: लोग इसकी वर्तनी अशुद्ध लिखते आ रहे हैँ। इस शब्द की शुद्ध वर्तनी लिखना बहुत आसान है। हम पहले इसकी उत्पत्ति पर विचार करेँगे। यह ‘दीप्ति’ के अर्थ मे ‘ज्वल्’ धातु का शब्द है। इस धातु के पूर्व प्रकृष्ट रूप से/ उत्तम प्रकार से के अर्थ मे ‘प्र’ उपसर्ग लगा हुआ है तथा अन्त मे ‘ल्युट्’ प्रत्यय जुड़ा हुआ है। इसप्रकार ‘प्रज्वलन’ शब्द का सर्जन होता है। इसे शुद्ध लिखने के लिए पहले आप ‘ज्वलन’ लिखेँ, फिर ‘ज्वलन’ से ठीक पहले ‘प्र’ लगा देँ। इस तरह से आपका शुद्ध शब्द ‘प्रज्वलन’ बनेगा। बहुसंख्यजन ‘दीप’ के साथ ‘प्रज्वलन’ को जोड़ते समय उसकी वर्तनी मे अशुद्धि करते हुए, ‘दीप प्रज्जवलन’ वा फिर ‘दीप प्रज्ज्वलन’ लिखते हैँ। अब आप शुद्ध शब्द ‘दीप-प्रज्वलन’ का प्रयोग करना आरम्भ कर देँ। इसी तरह से ‘प्रज्वलित’ शब्द शुद्ध है। इसमे भी आरम्भ मे ‘प्र’ उपसर्ग है तथा ‘ज्वल्’ धातु मे ‘क्त’ प्रत्यय जुड़ा हुआ है। इसप्रकार ‘प्रज्वलित’ शब्द की रचना होती है। आप पहले ‘ज्वलन’ लिखेँ, फिर उससे पहले ‘प्र’ लगा देँ। इसप्रकार आप शुद्ध शब्द ‘प्रज्वलन’ लिखने मे कभी अशुद्धि नहीँ करेँगे। इसी भाँति पहले ‘ज्वलित’ लिखेँ और उससे पहले ‘प्र’ लगा देँ। इसप्रकार आपका शुद्ध शब्द ‘प्रज्वलित’ हो गया।
दीप-प्रज्वलन ‘दीपावली’ का प्रतीक है। ‘दीपावली’ को ‘दीपमाला’ भी कहते हैँ। ‘दीपावली’ त्योहार को कोई ‘दिपावली’, कोई ‘दिवाली’ तो कोई ‘दीवाली’ कहता है। बहुसंख्यजन तो यह जानते ही नहीँ कि ‘दिपावली’, ‘दिवाली’ क्या हैँ और ‘दीवाली’ क्या। बस, लोग मना रहे हैँ तो वे भी उसी मे शामिल/सम्मिलित हो गये।
हम यहाँ आपको ‘दीपावली’ शब्द का विधिवत् ज्ञान तो करायेँगे ही, ‘दिपावली’, ‘दिवाली’ एवं ‘दीवाली’ का भी अर्थबोध करायेँगे।
तो आइए! हम इन शब्दोँ को सकारण समझते हैँ।
● दीपावली-दीवाली :– इन दोनो ही शब्द-प्रयोग को लेकर लोग भ्रम और संशय की स्थिति मे बने रहते हैँ। यही कारण है कि कुछ लोग ‘दीपावली’ तो कुछ ‘दिपावली’; वहीँ कुछ लोग ‘दिवाली’ तो कुछ ‘दीवाली’ का प्रयोग करते आ रहे हैँ। यहाँ यह जान लेना ज़रूरी है कि प्रत्येक शुद्ध शब्द-प्रयोग उसके अर्थ पर निर्भर करता है। शुद्ध शब्द ‘दीपावली’ है, जो ‘दीप’ (दीपक) और ‘आवली’ (पंक्ति) से मिलकर बना है, जिसका अर्थ है, ‘दीपोँ की पंक्ति’।
यहाँ ‘दीप’ है, जिससे ‘दीपक’ शब्द की रचना होती है। मूल शब्द ‘दीप’ है, न कि ‘दिप’ है। इसी अर्थ मे ‘दिवाली’ शब्द का भी प्रयोग होता है, जो कि अनुचित और अनुपयुक्त है; क्योँकि उपयुक्त शब्द ‘दीवाली’ है। ‘दिवाली’ का अर्थ तो इससे अर्थ है। जिस पट्टे/पट्टी को किसी यन्त्र से खीँचकर खराद, सान आदिक चलाये जाते हैँ, उसे ‘दिवाली’ कहते हैँ। यद्यपि अनेक शब्दकोश मे ‘दिवाली’ का भी ‘दीपावली’ के अर्थ मे प्रयोग किया गया है तथापि वह व्याकरण के नियम के विरुद्ध है। कोशकार कोश को भरने के लिए सभी प्रचलित शब्दोँ को उसी अर्थ मे ग्रहण कर लेते हैँ, जो लोक-व्यवहार मे हो सकते हैँ।
लोक-व्यवहार और शुद्ध-उपयुक्त प्रयोग दो अलग-अलग विषय हैँ। इसका स्थानिक प्रयोग ‘दिवारी’ है और दिपालि-दीपाली भी। ‘उद्धव शतक’ मे वर्णन है, “आवति दिवारी बिलखाइ ब्रजवासी कहै।” दीपावली का बिगड़ा हुआ रूप ‘दीवाली’ है, दिवाली नहीँ; परन्तु विशुद्ध और उपयुक्त शब्द ‘दीपावली’ ही है।
बहुसंख्यजन प्रयोग करते आ रहे हैँ :–
१– दीपावली की शुभकामनाएँ।
२–दीपावली पर शुभकामनाएँ।
३–दीपावली के लिए शुभकामनाएँ।
ये तीनो शुभकामनात्मक वाक्य अशुद्ध हैँ और अनुपयुक्त हैँ; क्योँकि हम दीपावली अथवा किसी त्योहार के अवसर पर शुभकामाना को व्यक्त करते हैँ, इसलिए शुद्ध और उपयुक्त वाक्य होगा :–
दीपावली के अवसर पर शुभकामना।
‘कामनाबोधक’ शब्द ‘शुभकामना’ वा ‘कामना’ भावप्रधान होता है, इसलिए इसका अलग से बहुवचन नहीँ बनाया जा सकता। इच्छाबोधक शब्द स्वयं मे बहुवचन का शब्द है। हम इच्छाएँ-इच्छाओँ, कामनाएँ-कामनाओँ इत्यादिक का प्रयोग नहीँ कर सकते।
अन्त मे, आप समस्त पाठक-पाठिकावर्ग को हमारी ओर से दीपावली/दीपमाला के अवसर पर आत्मिक सुख-समृद्धि की कामना है।
सम्पर्क-सूत्र :– 9919023870
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