
राश दादा राश, बंगालुरू
ये कलम है मेरी शोख ए अदा
कबूतर बनकर उड जाती ।
हर छत पर जा दाना लाती
कभी रात अंधेरे खो जाती ।
कभी गुटुर गुटुर करती चलती
कभी बडे शान में मदमाती ।
कभी पाँख उठाए बाज हुई
कभी रंगमहल डोला करती ।
कई रंग दिखाया करती वो
पंईयाँ पंईयाँ डग डग भरती ।
कभी रूप चंढिका धारण कर
मुझको ये भरमाया करती ।
कभी रण चंडी,कभी भँवर तान
कभी शोकाकुल हो व्यग्र हुई ।
कभी शरण चरण वन्दन करती
कभी भुजा उठा गर्जन करती ।
ये सप्त सुहावन रंगों की कथा
जो छेड़ दिया ; आभास हुआ ।
कितने रूपों में सजती रहती
राणा” से मुगलिया शानों तक ।
ये कथा कहूँगी अब ना कभी
कई रूप हमारे , क्या समझे ।
ऐ दादा-राश तू क्या सोंचे
मैं रूप बदल कर आऊँगी ।
ये कलम मेरी है शोख ए अदा
कबूतर बनकर उड जाती।
हर छत पर जा दाना लाती
कभी रात अंधेरे खो जाती ।