‘केंद्रीय हिंदी निदेशालय’ अपनी ही मानकता को झुठलाता हुआ!..? (भाग– दो)

प्रिय पाठकवृन्द!

आपने ‘केंद्रीय हिंदी निदेशालय’-द्वारा मानक शब्द, वर्तनी, विरामादिक चिह्नो से सम्बन्धित जारी की गयी लघु पुस्तिका मे अशुद्धियोँ और भ्रामक मानकीकरण को लेकर पहले भाग मे विरामचिह्नादिक से सम्बन्धित सकारण आपत्तियोँ पर आधारित लेख को पढ़ा था।

आप अब इस दूसरे भाग मे क्रमश: आगे की सामग्री को पढ़ेँ।

– सम्पादक

उक्त निदेशालय की ओर से विवरणचिह्न (:–) का मानकीकरण किस रूप मे किया गया है, हम अब इसे प्रयुक्त सम्बन्धित शब्दोँ के साथ समझेँगे। पृष्ठसंख्या ८, १०, १७ पर क्रमश: बीसवीँ पंक्ति मे 'तेरह है:- ; चौथी-पाँचवीँ पंक्तियोँ मे 'इस प्रकार है:' तथा दसवीँ पंक्ति मे 'इस प्रकार है :'। इस पूरी मानक विवरणिका मे यथास्थान विवरणचिह्न का प्रयोग किया ही नहीँ गया है; उसके स्थान पर विसर्गचिह्न और योजकचिह्न का ही प्रयोग दिख रहा है, जोकि निदेशालय के विशेषज्ञोँ की विशेषज्ञता को संदेह के कठघरे मे खड़ा करता दिख रहा है।
 
हमे जानना होगा कि 'लेकिन', 'परन्तु' इत्यादिक शब्दोँ से कभी कोई नया वाक्य आरम्भ नहीँ किया जा सकता और न ही 'लेकिन', 'किन्तु', 'परन्तु', 'अर्थात्', 'यद्यपि', 'अत:' इत्यादिक शब्दोँ के ठीक बाद अल्प विरामचिह्न (,) का प्रयोग किया जाता है, जैसाकि  उक्त लघु पुस्तक मे दिख रहा है। उदाहरण के लिए– भारत-सरकार के उक्त निदेशालय के निदेशक ने अपनी 'प्रस्तावना' की तीसरी, आठवीँ, इक्कीसवीँ पंक्तियोँ मे ही क्रमश: 'पहुँचाया। लेकिन,' 'हुआ। अर्थात्', 'रही। यद्यपि,' के प्रयोग किये हैँ। क्या निदेशक महोदय अपने इन प्रयोग को 'मानकीकरण' से जोड़कर देखते हैँ? निदेशक की प्रस्तावना व्याकरणिक अशुद्धियोँ से भरपूर दिख रही है। पृष्ठसंख्या ६ पर नीचे से पाँचवीँ पंक्ति मे 'करते हैँ। अत:,' का प्रयोग दिख रहा है और पृष्ठसंख्या की दूसरी पंक्ति मे 'आदि भी। अतएव' का।

पृष्ठसंख्या १० पर दिखाये गये 'मानक वर्णमाला तथा अंक' अध्याय मे कहीँ उल्लेख नहीँ है कि हिन्दी मे कुल कितने वर्ण हैँ और उनके निर्धारण का कारण क्या है। मूल स्वर ११ और मूल व्यंजन ३३ बताकर कर्त्तव्य की इतिश्री कर ली गयी है, जबकि हमारे देश के बहुसंख्य विद्यार्थी-अध्यापिका-अध्यापक आज भी वर्णोँ की कुल सही संख्या और उनके निर्धारण के नियम को लेकर उलझे रहते हैँ। इस अध्याय मे तालिका के अन्तर्गत दिखाये गये सारे 'व्यंजन वर्ण' अशुद्ध हैँ; क्योँकि व्यंजन अपूर्ण होता है। जब वह स्वर से मिलता है तब पूर्ण कहलाता है, इसलिए समस्त व्यंजन-वर्ग को हल्-चिह्न (् ) लगाकर ही लिखा जाना चाहिए था; जैसे– क्, ख्, च्, ट्, त्, प्, र्, ल् इत्यादिक।

इसी तालिका मे सबसे नीचे 'विशिष्ट व्यंजन' के रूप मे जिस व्यंजन का उल्लेख किया गया है, उसका प्रयोग हिन्दी मे नहीँ किया जाता। उसका प्रचलन अहिन्दीभाषाभाषी राज्योँ की बोलियोँ के अन्तर्गत 'ल' के रूप मे किया जाता है, फिर उस स्थानिक प्रयोग को 'विशिष्ट व्यंजन' क्योँ कहा गया है, जबकि लघु पुस्तक मे 'हिन्दी-वर्णमाला' की जानकारी दी गयी है? हमे इसका उत्तर निदेशालय की ओर से मिलना चाहिए।

पृष्ठसंख्या १५ पर दी गयी तालिका मे नीचे से पहले उपशीर्षक मे ‘लिप्यंतण’ का प्रयोग है, जोकि निरर्थक शब्द है; वहाँ ‘लिप्यन्तरण’ होगा।

उपर्युक्त निदेशालय की ओर से ‘रुपए’ शब्द-प्रयोग को सही ठहराया गया है और ‘रुपये’ को भी। कैसे? समझेँ। पृष्ठसंख्या १९ पर ३.५.२ नियम के अन्तर्गत ‘पचास रुपए मात्र’ दिखाया गया है और ३.५.४ के अन्तर्गत ‘दस रुपये मात्र’ भी। दोनो को मानक प्रयोग बताया गया है। यहाँ निदेशालय अपने मानकीकरण के नियम के अन्तर्गत यह निश्चित नहीँ कर पा रहा है कि ‘ए’ का प्रयोग उचित है वा ‘ये’ का? इन अक्षरोँ को लेकर अनेक स्थलोँ पर अन्तर्विरोध भी दिखते हैँ। जहाँ श्रुतिमूलक अक्षरोँ की चर्चा की गयी है वहाँ ‘ए’ और ‘ये’ के प्रयोग करने का कारण बताया गया है, जोकि यहाँ दिख रहे शब्दप्रयोग के संदर्भ मे पाठकवर्ग को भ्रमित करता है।

हम अब ‘विकारी’ (क्रिया) और ‘अविकारी’ (अव्यय) शब्दोँ के घालमेल को समझेँगे। पृष्ठसंख्या २२ पर ‘उर्दू शब्द’ के अन्तर्गत छठी पंक्ति की क्रिया ‘आत्मसात् कर लिए हैँ’ और नीचे से दूसरी पंक्ति मे ‘कर लिए गए हैँ’ दिख रहे हैँ, जबकि ‘लिए’ अव्यय-शब्द है और ‘लिया-लिये’ क्रियाशब्द। ऐसे मे, प्रश्न है :– क्या निदेशालय के कथित विशेषज्ञोँ ने अविकारी (अव्यय– लिए) को भी ‘विकारी’ (क्रिया– लिए) मान लिया है? फिर तो हमारे विद्यार्थियोँ और अध्यापकोँ को ‘शब्दभेद’ के साथ बलप्रयोग करते हुए, नये सिरे से पढ़ना होगा। इसके अशुद्ध और अमानक प्रयोग उक्त लघु पुस्तक के अनेक पृष्ठोँ पर दिख रहे हैँ।

पृष्ठसंख्या २२ पर सुस्पष्टत: लिख दिया गया है कि हिन्दी के पूर्ण विराम को छोड़कर, शेष विरामादिक चिह्न वही प्रयुक्त होँगे, जो अंग्रेजी के हैँ। दूसरे शब्दोँ मे– निदेशालय ने हिन्दी-विरामचिह्नो की उपेक्षा करते हुए, अँगरेज़ी ग़ुलामी स्वीकार कर ली है। यह तो वही बात हुई– खायेँगे हिन्दुस्तान की; मगर गायेँगे इंग्लिस्तान की!

‘बारह खड़ी’ के अन्त मे ‘ढ़’ के नीचे जो अक्षर-लिपि दी गयी है, वह प्रचलन से पूर्णत: बाहर है, फिर उसे मानकीकरण के अन्तर्गत किस आधार पर रखा गया है?
पृष्ठसंख्या २० पर चञ्चल > चंचल; गङ् गा> गंगा; पण्डित> पंडित। दिये गये हैँ, जिनमे से ‘गङ् गा’ वाला शब्द अशुद्ध है; वहाँ ‘गङ्गा> गंगा’ होगा। यहाँ पंचमाक्षर के शुद्ध रूप के साथ एकरूपता मे विभेद कैसा?
पृष्ठसंख्या १७, १८, २०, २२ पर ३.१.२.२, ३.४.२, ३.६.२.४, ३.१५.२ के नियमानुसार, क्रमश: ‘स्थान- लाघव’, ‘प्रयत्न – लाघव’; ‘वाङ् मय’, ‘उच्छ् वास’; ‘तुझ सा’; ‘तद् भव’; ‘शुद् ध’ के स्थान पर निदेशालय के नियमानुसार ही ‘स्थान-लाघव’, ‘प्रयत्न-लाघव’ होगा एवं ‘वाङ्’ और ‘मय’ ‘उच्छ्’ और ‘वास’, ‘तद्’ और ‘भव’ तथा ‘शुद्’ और ‘ध’ को मिलाकर लिखा जायेगा; क्योँकि ‘वाङ् मय’, ‘उच्छ् वास’, ‘तद् भव’ तथा ‘शुद् ध’ कोई सार्थक शब्द नहीँ हैँ। यहीँ पर योजक-चिह्न का प्रयोग करके ‘तुझ-सा’ लिखना होगा।

इस पूरी लघु पुस्तक मे ‘पृथक्’ के स्थान पर ‘पृथक’ का प्रयोग किया गया है, जोकि अशुद्ध है।

पृष्ठसंख्या २३ पर ‘संख्यावाचक शब्द’ के अन्तर्गत ‘नब्बे’ के स्थान पर ‘नब्वे’ तथा ‘क्रमसूचक संख्याएँ’ के अन्तर्गत ‘नवाँ’ के स्थान पर ‘नौवाँ’ होगा; क्योँकि संख्याबोधक शब्द ‘नौ’ है, न कि ‘नव’। दोनो मे अर्थभिन्नता भी है। ‘भिन्नसूचक संख्याएँ’ के अन्तर्गत ‘एक चौथाई’ की जगह ‘एक-चौथाई’ होगा। निदेशालय के विशेषज्ञोँ को इस ओर गम्भीरतापूर्वक दृष्टिनिक्षेपण करना होगा।

इस पूरी विवरणिका मे शीर्षक और उपशीर्षक के नीचे रेखा खीँची गयी है, जोकि अशुद्ध और अनुपयुक्त है; क्योँकि किसी शब्द वा वाक्य को रेखांकित करने का अर्थ है, उसकी उपयोगिता-महत्ता का बोध कराना; उस पर बल देना। जब यहाँ मोटे अक्षरोँ मे शीर्षक-उपशीर्षक मुद्रित दिख रहे हैँ तब उनके नीचे रेखा खीँचने का कोई औचित्य नहीँ है।

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