अन्तर्मन की आँधी (कहानी)

कभी-कभी जीवन के सबसे छोटे अनुभव और अनकहे शब्द, हमें इतनी गहरी सीख दे जाते हैं कि वह ताजिंदगी हमारे साथ चलती है। यही कहानी है एक गाँव की, जहाँ एक सज्जन परिवार था — परंतु जब अपने, पराये और अहंकार के बीच दरारें पड़ने लगीं, तब वह घर, जो कभी प्रेम और भरोसे का मंदिर था, टूटने की कगार पर आ पहुँचा।
यह कहानी है केवल प्रसाद के परिवार की — एक ऐसा परिवार जहाँ तीन पीढ़ियाँ साथ रहती थीं।

केवल प्रसाद धीर-गंभीर स्वभाव के सज्जन थे। उम्र 65 वर्ष, धवल केश, माथे पर चंदन, और वाणी में संयम। उन्होंने अपनी मेहनत और नीति से बड़ा घर खड़ा किया था। तीन बेटे, दो बहुएँ, एक बेटी, और पोते-पोतियाँ।
पर धीरे-धीरे घर में कुछ ऐसा होने लगा, जिसकी कल्पना किसी ने नहीं की थी। छोटे बेटे नीलू की पत्नी शशि, स्वभाव से थोड़ी दिखावटी और बातूनी थी। उसे अपने मायके की बातें सबके सामने करना और दूसरों की प्रशंसा करना पसंद था।
अक्सर वह कहती —
“मेरे मायके में तो सब इतना अच्छा है। यहाँ तो कोई सलीका ही नहीं।”
बड़े बेटे की पत्नी योगिता को यह बहुत बुरा लगता। धीरे-धीरे बहुओं के बीच दरार पड़ी और यही बात आगे जाकर पूरे घर की शांति को निगल गयी।

केवल प्रसाद ने समझाया —
“बेटा, अपने घर की बात बाहर नहीं ले जाते। परायों को अपना घर दिखाना मतलब अपने ही घर की दीवार गिराना है।”

पर कौन सुनता? परायों की इज्जत और अपनों की उपेक्षा ही गृहकलह की जड़ बन गयी।

समय के साथ घर के सदस्यों के बीच अविश्वास पनपने लगा। नीलू ने अपने भाई सत्येन्द्र पर चोरी का झूठा आरोप लगा दिया।
“मेरे पैसे सत्येन्द्र भैया ने ही उठाए होंगे और कौन ले सकता है?”
जब केवल प्रसाद  ने यह सुना, तो उनके बूढ़े दिल पर गहरा आघात हुआ। उन्होंने कहा —
“जिस घर में अपने पर भरोसा नहीं रहता, वहाँ ईश्वर भी रुकना नहीं चाहता।”

इसी के साथ भाई-भाई के बीच शक की दीवार खड़ी हो गयी। धीरे-धीरे हँसता-खेलता आँगन श्मशान की भाँति नीरस हो गया।

एक समय था जब सत्येन्द्र भैया के बिना कोई त्यौहार नहीं मनाया जाता था। नीलू और सत्येन्द्र में उम्र का बहुत फर्क न होते हुए भी रिश्ते में मान और आत्मीयता थी। पर जब छोटे-बड़े के बीच मान और मर्यादा की दीवार ढह जाती है तब घर, घर न रहकर धर्मशाला बन जाता है। जहाँ कोई किसी का नहीं, कोई किसी के लिए नहीं।

केवल प्रसाद जी ने कहा था —
“रिश्तों में बड़ा-छोटा न रहे, तो घर सराय बन जाता है।”
अब न सुबह की प्रणाम रही और न रात की राम-राम।

गाँव में एक नयी घटना हुई। एक युवक सोनू, जो केवल प्रसाद के पड़ोसी का बेटा था — चरित्रहीनता के कारण पूरे गाँव में बदनाम हो गया था। वह दिखावे मे तो बहुत सज्जन और विद्वान था। अधिकांश महिलाएँ और स्कूल जाने वाली किशोरियाँ उसकी बातों मे आ जाती थीं। वहीं सोनू के दिखावे को देखकर अनेक युवतियाँ उससे रिश्ता कायम करना चाहती थीं। साथ ही साथ कुछ नीच किस्म की नवयुवतियों के साथ भी सोनू के अनैतिक व्यवहार सामने आये। इस कारनामे के उजागर होने के बाद गाँव का माहौल काफी खराब हो गया।

केवल प्रसाद जी ने बच्चों को समझाया —
“चरित्रहीनता लड़कियों की हो या लड़कों की, दोनों समाज का सर्वनाश करती है। शील और संस्कार ही घर-परिवार की ढाल होते हैं।”

पर जब चरित्रहीनता ने धीरे-धीरे घर के कुछ किशोरों को भी अपनी चपेट में लेना शुरू किया, तो केवल प्रसाद का मन व्याकुल हो उठा।

घर के झगड़ों और अविश्वास के कारण पुरानी बातें बार-बार निकलती रहीं। “तूने उस दिन ये कहा था।” “तेरा बेटा उस दिन ऐसे बोला था।”

बुरी यादों ने सबके दिल में घाव बना दिये थे। लोग वर्तमान भूलकर अतीत की बातों को सोचते रहते और धीरे-धीरे नफरत के माहौल मे जीने लगे।
केवल प्रसाद जी कहते —
“बुरी यादें, दिल को दुखाती हैं और गलत रास्ता दिखाती हैं। जो उन्हें छोड़ न सके, वो कभी आगे नहीं बढ़ पाता।”

पर वे समझाते रहे और सब सुनते रहे — पर कोई मानने को तैयार न था।

घर में अब अहंकार की दीवारें खड़ी हो गईं।
नीलू को लगता — “मैं सब से बेहतर।”
सत्येन्द्र सोचता — “मेरे बिना घर कुछ नहीं।”
बहुएँ अपने-अपने मायके की बातें लेकर दूसरों को नीचा दिखाने लगीं।
केवल प्रसाद ने जीवन का गाढ़ा अनुभव सुनाया —
“अहंकार अच्छाई को खा जाता है। जिस दिन अहंकार आया, समझो रिश्तों में दूरी आनी शुरू हो गई।” बुजुर्ग वैसे भी सठिया जाते हैं। वह तो पूरा दिन बड़बड़ाते रहते हैं। ऐसे मे उनकी लाख टके की बात की भी अनसुनी कर धी जाती। समय ने सबको अपनी चपेट मे ले लिया। रिश्तों मे लगी अहंकार की आग ने घर का सुख-चैन जला दिया। अब तो घर मे जिन्दा लाशें थीं।

इधर बहुओं की आपसी ईर्ष्या ने घर का वातावरण विषैला कर ही रखा था। जब सत्येन्द्र के बेटे की नौकरी लगी तो नीलू की पत्नी शशि अन्दर ही अन्दर जलने लगी और उसने जलन में कहा —
“क्या है इसमें? किस्मत का खेल है। मेरे बेटे को भी देख लेना।”
केवल प्रसाद ने कहा —
“जीवन आसान बनाना है तो ईर्ष्या छोड़नी होगी। दूसरों की खुशी में अपनी खुशी ढूँढनी होगी। मन को साधो, तभी घर बसेगा।”

उन्होंने सबको मंदिर बुलाकर संकल्प दिलवाया —
“आज से हम न ईर्ष्या करेंगे, न द्वेष। एक-दूसरे का सहारा बनेंगे।” धीरे-धीरे बदलाव आने लगा।

केवल प्रसाद ने समय के साथ मन्दिर का निर्माण कराया। इस अवसर पर सभी को निमंत्रित किया। पूरे परिवार ने भक्तिभाव से देवविग्रह की स्थापना के दौरान किये गये वैदिक कार्यक्रम मे भाग लिया। सुबह-शाम आरती होने लगी। बुरी यादें त्याग दी गईं।
नकारात्मक बातों को त्यागने पर सभी कि सहमति बन गयी। धीरे-धीरे नकारात्मक बातें पीछे छूट गयीं।

सत्येन्द्र और नीलू ने वर्षों बाद गले मिलकर कहा —
“भाई, अब सब भूल जाएँ। चलो फिर से नया घर बसाते हैं।”
बच्चे हँसने लगे। महिलाएँ एक साथ पकवान बनाने लगीं।
केवल प्रसाद जी ने कहा —
“जो बुरी यादें छोड़कर, सकारात्मकता की ओर भागता है, जीवन में वही सच्चा सुख पाता है।”

आज भी केवल प्रसाद जी का बनवाया मन्दिर मौजूद है और सभी की आस्था का केन्द्र बना हूआ है। केवल प्रसाद का परिवार सभी को सिखाता है —
“अपनों का अपमान मत करो। चरित्र की रक्षा करो। बुरी यादें छोड़ो। अहंकार और ईर्ष्या से बचो। तभी जीवन सुखमय बनेगा।”