
डॉ० राघवेन्द्र कुमार त्रिपाठी राघव–
प्राचीन काल की बात है। एक सुंदर, हरे-भरे राज्य में एक साधारण-सा मनुष्य रहता था, जिसका नाम था धर्मवीर। उसका न कोई बड़ा घर था, न भारी धन-दौलत। पर पूरे गाँव और आस-पास के इलाके में उसके सत्य, करुणा और नीति पर अडिग रहने के लिए उसका नाम आदर के साथ लिया जाता था।
धर्मवीर के पिता अक्सर कहा करते थे —
“बेटा, मनुष्य की कीमत उसकी ज़ुबान की मिठास या उसके कपड़ों की कीमत से नहीं, बल्कि उसकी आत्मा की सच्चाई और कर्म के धर्म से होती है। चाहे लोग तारीफ़ करें या निंदा, तू अपने धर्मपथ से कभी मत डिगना।”
धर्मवीर ने इस उपदेश को अपने जीवन का मूल मंत्र बना लिया था।
एक दिन राज्य का सबसे बड़ा और धनी व्यापारी सेनापति, जो अपने लोभ और छल के लिए प्रसिद्ध था, धर्मवीर के पास आया।
“धर्मवीर!” उसने कहा, “तू तो बुद्धिमान है, पर इस फटेहाल हालत में क्यों जी रहा है? मेरे यहाँ आ जा। सोने-चाँदी, वस्त्र, मान-सम्मान सब तुझे मिल जाएगा। इस धर्म की बातें छोड़ दे, आज की दुनिया में इनसे पेट नहीं भरता।”
धर्मवीर ने मुस्कराते हुए उत्तर दिया,
“सेनापति जी, एक मनुष्य का सच्चा आभूषण उसकी सच्चाई और करुणा है, न कि सोने-चाँदी के हार। मैं अपना धर्म छोड़कर कभी लोभ का दास नहीं बनूंगा।”
सेनापति को यह बात नागवार गुज़री। उसने क्रोध में आकर धर्मवीर को बदनाम करने की ठान ली। उसने गाँव में अफवाहें फैला दीं — कि धर्मवीर चोरी करता है, और धोखेबाज़ है। धीरे-धीरे लोग धर्मवीर से दूर रहने लगे। जो लोग कभी आदर करते थे, वे भी कन्नी काटने लगे।
लेकिन धर्मवीर का मन विचलित नहीं हुआ। वह पहले की तरह ही गरीबों की सेवा करता, बीमारों की देखभाल करता और अनाथ बच्चों को पढ़ाता रहा। वह हर दिन अपने आप से कहता —
“अच्छे कार्यों के मार्ग में कठिनाइयाँ आना स्वाभाविक है। जो उनसे डरकर भाग जाए, वही हारता है। जो अडिग रहे, वही एक दिन अपने लक्ष्य को प्राप्त करता है।”
समय बीतता रहा। फिर एक दिन राज्य पर संकट आया। पड़ोसी राज्य के सेनापति ने राजा के इकलौते पुत्र का अपहरण कर लिया। सारा राज्य संकट में पड़ गया। सेनापति जैसे लोभी दरबारियों ने अवसर का लाभ उठाने की सोची। लेकिन कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं था, जिस पर राजा आँख मूँद कर विश्वास कर सके।
तभी किसी ने राजा को धर्मवीर का नाम सुझाया। राजा को भी याद आया कि वही व्यक्ति था, जो न धन से डोला था, न अपमान से टूटा था। तुरंत धर्मवीर को बुलवाया गया।
धर्मवीर ने बिना कोई शर्त रखे, राज्य की सेवा स्वीकार की। उसने कुछ निडर और सच्चे लोगों की टोली बनाई और चतुराई व साहस से राजकुमार को सकुशल वापस ले आया। यह देखकर पूरा राज्य स्तब्ध रह गया।
राजा ने धर्मवीर को दरबार में सम्मानित किया, सोने की मुद्राएँ, बहुमूल्य वस्त्र और ऊँचा पद देने की घोषणा की। लेकिन धर्मवीर ने विनम्रता से सिर झुका कर कहा,
“महाराज, मैं सेवा और धर्म के लिए जिया हूँ, न कि पुरस्कार और पद के लिए। मेरे लिए सबसे बड़ा पुरस्कार वही है — जो मेरा अंतरात्मा हर रात मुझे देता है। मैं वही साधारण जीवन जीना चाहता हूँ, जहाँ मैं पीड़ितों की सेवा कर सकूँ।”
फिर वह सभा में खड़े होकर बोला —
“मनुष्य चाहे निर्धन हो या धनवान, उसके व्यवहार में नम्रता और करुणा होनी चाहिए। जो जीवन और मृत्यु, यश और अपयश, लाभ और हानि में समान भाव रखता है, वही सच्चा नीतिवान है। अच्छे कार्यों के मार्ग में कठिनाइयाँ अवश्य आती हैं। परंतु जो डगमगाता नहीं, वही एक दिन अपने लक्ष्य को प्राप्त करता है।”
यह कह कर धर्मवीर अपनी पुरानी कुटिया की ओर लौट गये। धर्मवीर मर कर भी लोगों के दिलों में जीवित रहा, क्योंकि उसके आदर्श अमर थे।