‘भक्त’ अपने ‘भगवान्’ की बात क्यों नहीं मानते?
● आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय कैसी विडम्बना है कि पहली ओर, हमारे धर्माचार्य अपने वचनामृत के अन्तर्गत ‘धर्म’ की परिभाषा करते हैं, “धारयते इति धर्म:।” अर्थात् जो धारण किया जाता है, वह ‘धर्म’ है। मनुष्य […]