आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज के दोहे
मन की मरती छाँव है, तन घायल हर रोज़।व्यथा-कथा भी मौन है, कोई ख़बर, न खोज।। (१) अन्धे के दरबार में, चीरहरण का खेल।गूँगे-बहरे हैं जुटे, लँगड़ों का भी मेल।। (२) ‘सधवा’ महँगाई दिखे, ‘विधवा’ […]
मन की मरती छाँव है, तन घायल हर रोज़।व्यथा-कथा भी मौन है, कोई ख़बर, न खोज।। (१) अन्धे के दरबार में, चीरहरण का खेल।गूँगे-बहरे हैं जुटे, लँगड़ों का भी मेल।। (२) ‘सधवा’ महँगाई दिखे, ‘विधवा’ […]