‘शिक्षक-दिवस’ की पूर्व-सन्ध्या मे आयोजित ‘सर्जनपीठ’ की राष्ट्रीय परिसंवादमाला

‘सर्जनपीठ’ के तत्त्वावधान मे ‘शिक्षक-दिवस (तिथि)’ की पूर्व-सन्ध्या मे (‘सन्ध्या पर’ अशुद्ध है।) ‘शिखर से शून्य की ओर सारस्वत पथ’ परिसंवादमाला के अन्तर्गत ‘शिक्षा-प्रशिक्षा और परीक्षा मे परिव्याप्त भ्रष्टाचार : उत्तरदायी कौन?’ विषयक एक आन्तर्जालिक राष्ट्रीय बौद्धिक परिसंवाद का आयोजन प्रयागराज से किया गया था, जिसमे देश के शिक्षा, साहित्य तथा मीडियाजगत् से जुड़े प्रबुद्धजन की प्रभावकारी सहभागिता रही।
आर्यकन्या डिग्री कॉलेज, प्रयागराज की सहायक प्राध्यापक डॉ० मुदिता तिवारी ने कहा, “भ्रष्टाचार के मूल में धन और शक्ति की महत्त्वाकांक्षा है। कई बार सरकारी दबाव और उच्चाधिकारियों का भय भी कारक तत्त्व होता है। प्रतिभा की जगह यदि अन्य कारक नियुक्तियों में प्रभावी हो जाये तो भ्रष्टाचार पैर पसार लेता है, जिसका प्रभाव पीढ़ियों तक चलता रहता है तथा समाज और देश की प्रगति में बाधक बनता है।”
साहित्यकार आरती जायसवाल, रायबरेली का मानना है, “शिक्षा-प्रशिक्षा और परीक्षा मे परिव्याप्त भ्रष्टाचार-हेतु ‘लचर क़ानून-व्यवस्था, शिक्षकों तथा विद्यार्थियों-परीक्षार्थियों की अयोग्यता, अभिभावकों तथा शिक्षकों का बच्चों पर अधिक अंक लाने का दबाव; विद्यालय की छवि को सर्वोत्तम बनाये रखने की लिप्सा; उसे सामाजिक प्रतिष्ठा से जोड़कर देखना तथा सफलता-हेतु सरल मार्ग चुनने की मानव-प्रवृत्ति उत्तरदायी है।
आज शिक्षा ग्रहण करने का उद्देश्य सीखना-सिखाना न होकर, येन-केन-प्रकारेण अधिकतम अंक लाना रह गया है। सभी को यह समझना होगा कि किसी भी परीक्षा का प्राप्तांक विद्यार्थी के पूरे जीवन और गुणों का आकलन नहीं होता। आज दोषियों को दण्ड देने की जितनी आवश्यकता है उतनी ही आवश्यकता समाज की मानसिकता में बदलाव लाने की भी है।
डॉ० सोनम सिंह, सहायक आचार्य एवं विभागाध्यक्ष– हिन्दी-विभाग, कानपुर विद्या मन्दिर महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय, कानपुर ने बताया, “धन की अधिकाधिक चाहत और अधिकारियों का भ्रष्ट आचरण, नक़ल माफियाओं और अधिकारियों की रिश्वत के आधार पर मिलीभगत, कम परिश्रम में अधिक प्राप्त करने की शिक्षार्थियों की चाहत उन्हें नक़ल माफ़ियाओं के पास ले जाती है।अनैतिक तरीके़ से पदप्रतिष्ठा प्राप्त किये व्यक्ति की अयोग्यता भी इसके लिए उत्तरदायी है। धन ख़र्च करके प्रभुता-प्राप्त व्यक्ति किसी भी तरह अपना धन उगाहना चाहेगा। जातिवाद और भाई-भतीजावाद (उ० प्र० उ० शि० से० आयोग के पूर्व की और जननायक चंद्रशेखर वि०वि०, बलिया की हाल की नियुक्तियाँ) भी शिक्षा-प्रशिक्षा एवं परीक्षा में व्याप्त भ्रष्टाचार के लिए सर्वाधिक उत्तरदायी हैं। प्रशिक्षुओं- शिक्षार्थियों में नवोन्मेष और मौलिकता का अभाव उनके शैक्षणिक भ्रष्टाचार और साहित्यिक चोरी के लिए उत्तरदायी है। अँग्रेज़ी मानसिकता, भाषायी भेद और वर्गभेद से ग्रस्त शिक्षाविद् भी योग्य शिक्षार्थियों के साथ अन्याय कर जाते हैं। अभी हाल ही में इससे सम्बन्धित मुद्दा बी० एच० यू० और जे०एन०यू० में देखने को मिला था। इनके अतिरिक्त मैं शैक्षिक भ्रष्टाचार के लिए आरक्षण को भी बहुत अधिक उत्तरदायी मानती हूँ।”
परिसंवाद-आयोजक भाषाविज्ञानी और समीक्षक आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय ने कहा, “मै तो सामान्य परीक्षा से लेकर विशेष परीक्षाओं, विशेषत: प्रतियोगितात्मक परीक्षाओं के प्रश्नपत्रों मे किये गये अशुद्ध और अनुपयुक्त प्रश्न और उत्तर-विकल्प पर गम्भीरतापूर्वक प्रश्न (संशोधनसहित) उठाता आ रहा हूँ; परन्तु सम्बन्धित आयोग, बोर्ड, अकादमी तथा संस्थान के अधिकारी यों दिखते हैं, मानो उनके लिए यह कोई अति सामान्य विषय हो। इसके पीछे कई कारक जुड़े हुए हैं। ऐसे लोग निर्लज्जता को ओढ़ते-बिछाते आ रहे हैं। सर्वाधिक प्रभावक कारक उन अधिकारियों और शिक्षाजगत् से जुड़े अध्यापकवर्ग हैं, जो नितान्त अयोग्य हैं; कुपात्रता के बावुजूद आरक्षण के बल पर अपनी गर्हित सेवा मे लगे हुए हैं और उनसे अधिक ज्ञानवान् हमारे हाईस्कूल-इण्टरमीडिएट के मेधावी विद्यार्थी हैं। ऐसे आयोगादिक की कुत्सित व्यवस्था का ही परिणाम है कि आज विद्यार्थी, अभ्यर्थी तथा परीक्षार्थी संशय की स्थिति मे जी रहे हैं और अपने भविष्य के प्रति आशंकित भी हैं। दूसरी ओर, सत्ताधारी कुर्सी बचाये रखने के लिए हर प्रकार के जघन्य कृत्य करते आ रहे हैं; शिक्षा, प्रशिक्षा तथा परीक्षा उनकी प्राथमिक सूची मे हैं ही नहीं।”
आइ० ह्वी० २४ न्यूज़ के सम्पादक और जन टी० ह्वी० राष्ट्रीय चैनल के संवाददाता राघवेन्द्र कुमार त्रिपाठी ‘राघव’ का मानना है, “शिक्षा का मूल ज्ञान है, जिसकी प्राप्ति के लिए अपनाया जानेवाला साधन शिक्षा है। सुदृढ़ साधन और संयमित साधक का परस्पर मेल ज्ञान-पथ पर चलते-चलते प्रज्ञावान् बनाता था। शिक्षा सीखने की कला है; वह विद्या का रूप है और विद्या मुक्ति का आधार। हमारे धर्मग्रंथ उद्घोष करते हैं, “सा विद्या या विमुक्तये”; लेकिन वर्तमान मे, शिक्षा मुक्त के स्थान पर बद्ध हो चुकी है। उसका उद्देश्य और अवधारणा ही बदल गयी है। ऐसा इसलिए कि वह सेवा के स्थान पर ‘व्यापार’ बन गयी। व्यापार मे उच्च लाभ की इच्छा भ्रष्ट आचरण की ओर उन्मुख करती है। ऐसे मे, शिक्षा का स्वरूप अपने अस्तित्व को समाप्त कर, सूचना मे परिणित हो जाता है। सूचना अर्थाधारित है। येन-केन-प्रकारेण लाभ और स्वहित ने शिक्षा को क्षुद्र कर दिया है। क्षुद्रता की पीठ पर भ्रष्टाचार का बेताल सवार रहता है। इसी बेताल ने परीक्षा को स्वेच्छाचारिणी बना दिया है। गुरु के सान्निध्य मे ज्ञान और शैक्षिक दायित्वहेतु नियोजित नौकर-द्वारा पढ़ाये/सिखाये गये पाठ्यक्रम मे वैसा ही अन्तर है जैसा कि आत्मा और शरीर मे। एक घोर सकारात्मक और दूसरा नकारात्मक। भोगने की लालसा सबमे है; व्यक्ति, संस्थान तथा नियामक अर्थात् शासक, अस्तु सभी उत्तरदायी हैं।”
प्राथमिक शिक्षा रजरई, आगरा की सहायक अध्यापक राजश्री यादव ने कहा, “शिक्षा-प्रशिक्षा और परीक्षा में परिव्याप्त भ्रष्टाचार को दूर करने के लिए हमारी शिक्षानीति में बदलाव की आवश्यकता है । सभी बोर्ड समाप्त कर केवल एक सेंट्रल बोर्ड होना चाहिए।”