तीर्थराज प्रयाग की जय हो!

● आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय

प्रयाग एक हृदयहारी तीर्थ है। तीर्थ ‘तृ’ धातु का शब्द है, जिसका अर्थ ‘पार करना’ है। इसी धातु के अन्त मे जब ‘थक्’ प्रत्यय जोड़ा जाता है तब ‘तीर्थ’ शब्द की रचना होती है। जलाशय इत्यादिक मे उतरने अथवा नावयात्रियों के उतरने-चढ़ने के लिए बनी हुई सीढ़ियाँ तीर्थ है। ‘घाट’ को भी ‘तीर्थ’ कहते हैं। कोई जलाशय, नदी इत्यादिक के पास का ऐसा स्थान, जिसे जनसामान्य आध्यात्मिक दृष्टि से पवित्र समझता हो, ‘तीर्थ’ कहलाता है। इनके अतिरिक्त ‘तीर्थ’ के कई अर्थ हैं। हम जैसे ही ‘तीर्थ’ के साथ ‘राज’ शब्द का योग करते हैं वैसे ही ‘तीर्थराज’ शब्द का अस्तित्व उभरता है। तीर्थराज नाम लेते ही ‘प्रयाग’ शब्द आँखों के सामने तैरने लगता है। ऐसा इसलिए कि प्रयाग ही ऐसा आध्यात्मिक/आत्मिक क्षेत्र है, जिसे ‘तीर्थराज’/ ‘तीर्थ-राज’ कहा जाता है। तीर्थराज का अर्थ है, ‘तीर्थों का राजा’। इसप्रकार यह ‘षष्ठी तत्पुरुष समास’ हुआ। प्रयाग को तीर्थपति/तीर्थ-पति (तीर्थों का स्वामी) भी कहा गया है।

‘प्रयाग’ शब्द की निष्पत्ति ‘यज्’ धातु से होती है; ‘प्र’ उपसर्ग प्रकृष्ट, श्रेष्ठ, उत्कृष्ट गुण, भाव तथा क्रिया का बोधक है, जबकि ‘याग’ शब्द ‘यज्ञवाची’ है। प्रयाग ‘बहुव्रीहि समास’ का उदाहरण है। वह स्थान, जहाँ बहुत-से यज्ञ सम्पादित किये गये हों, ‘प्रयाग’ कहलाता है।

हमारे पुराणादिक ग्रन्थों मे जितना अधिक ‘प्रयाग’ की महिमा का निरूपण किया गया है उतना अन्य किसी तीर्थस्थान का नहीं। यही कारण है कि उसे ‘तीर्थों का शिरोमणि’ कहा गया है।

अनुपम तीर्थस्थान प्रयाग के पक्ष में हमारे सनातन पौराणिक ग्रन्थ आ खड़े होते हैं। ‘ब्रह्मपुराण’ के अनुसार, प्रयाग-क्षेत्र मे प्रकृष्ट यज्ञकर्म सम्पादित हुए हैं, इसलिए उसे ‘प्रयाग’ की संज्ञा प्राप्त है।

‘मत्स्यपुराण’ मे प्रयाग के विस्तार का वर्णन किया गया है, जिसके पक्ष मे ‘पद्मपुराण’, ‘अग्निपुराण’ तथा ‘महाभारत’ का अनुमोदन प्राप्त होता है।

महाभारत के ‘आदिपर्व’ मे प्रयाग को सोम, वरुण तथा प्रजापति का ‘जन्मस्थान’ कहा गया है, जबकि ‘वनपर्व’ मे
प्रयाग को समस्त तीर्थों, देवों तथा ऋषि-मुनियों का वास बताया गया है।

‘अनुशासनपर्व’ की मान्यता है कि माघमास मे तीन कोटि दस सहस्र (‘सहस्त्र’ अशुद्ध है।) तीर्थ प्रयाग मे एकत्र होते हैं।

अब चलते हैं, बाबा तुलसी की कुटिया मे। बाबा प्रयाग के माहात्म्य (‘महात्म्य’ और ‘माहत्म्य’ अशुद्ध हैं।) को इस रूप मे रेखांकित करते हैं :―
”माघ मकरगत रबि जब होई। तीरथ पतिहि आव सब कोई॥
देव दनुज किन्नर नर श्रेनी। सादर मज्जहि सकल त्रिवेनी॥
पूजहिं माधव पद जल जाता। परसि अखयबटु हरख हिंगाता॥”

वहीं निम्नांकित श्लोक के माध्यम से प्रयाग का मनोरम वर्णन किया गया है :―
”तीर्थावली यस्य तु कण्ठभागे। दानावली वल्गति पाद मूले।
व्रतावली दक्षिण बाहु मूले। स तीर्थराजो जयति प्रयागः॥”

प्रयाग के अस्तित्व और उसकी व्याप्ति का यह प्रमाण विलक्षण, अखण्डनीय तथा जीवन्त है; क्योंकि यहाँ ‘श्रुति’, ‘स्मृति’ तथा ‘पुराण’ मे गंगा-यमुना के संगम का विलक्षण चित्रण किया गया है :―
”श्रुतिः प्रमाणं स्मृतयः प्रमाणम्। पुराणमप्यन्न परं प्रमाणम्॥
यत्रास्ति गङ्गा यमुना प्रमाणम्। स तीर्थराजो जयति प्रयागः॥”

(सर्वाधिकार सुरक्षित― आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; २१ जनवरी, २०२३ ईसवी।)