
आदित्य त्रिपाठी (सहायक अध्यापक, प्रतापपुर, कोथावाँ)–
आज समाज में आये दिन रिश्तों के टूटने की घटनाएँ, घर-परिवार की दरकती दीवारें और स्त्री-पुरुष के बीच पनपती कटुता ने एक गंभीर प्रश्न खड़ा कर दिया है। क्या बेटियाँ अब घर की मान-मर्यादा न बनकर मीना बाजार की जीनत बनना चाहती हैं? क्या हम खुद को आधुनिक और स्त्रीवादी दिखाने के लिये बेटियों को जानबूझकर जहरीला बना रहे हैं? हमने बेटियों को पंख तो दे दिए, पर क्या उड़ने के लिए स्पेस और दिशा तय करने की समझ दी? “आज़ादी” और “अधिकार” की भाषा में उलझा समाज, अब उस आग से झुलसने लगा है, जिसे उसने खुद हवा दी थी।
आज मोबाइल स्क्रीन पर उंगलियां संस्कार नहीं, संवेदनहीनता टटोल रही हैं। सोशल मीडिया पर लाइक्स और फॉलोअर्स ने आत्मसम्मान और चरित्र को पीछे छोड़ दिया है। आज हर दूसरा मामला घरेलू कलह, झूठे मुकदमे, मानसिक प्रताड़ना और रिश्तों की हत्या का है। दोष किसी एक पक्ष का नहीं — दोष है उस संस्कारशून्य आधुनिकता का, जिसने वासनामय मोबाइल कंटेंट, इन्स्टा-रील्स पर दिखावा, ‘मैं ही सर्वश्रेष्ठ’ का मिथ्या गर्व और ‘पर्सनल चॉइस’ की आड़ में अनैतिकता को प्रश्रय दिया।
आज बेटी में प्रेम की जगह प्रतिस्पर्धा, ममता की जगह दिखावा और पारिवारिकता की जगह व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा ने ले ली है। जहाँ पत्नी अपने पति को एटीएम और ससुराल को होटल मानती है। जहाँ नाजायज रिश्ते ‘चॉइस’ कहे जाते हैं। जहाँ झूठे आरोप कानूनी हथियार बनकर बेटों की जिंदगियाँ खत्म किए जा रहे हैं।
बेटियों को यदि सिर्फ फैशन, स्वतंत्रता, प्रतिस्पर्धा और स्टाइल सिखाया जाएगा तो भावनात्मक संतुलन, सहनशीलता और दायित्व बोध कहाँ से आएगा? मोबाइल में बोल्ड वीडियो, सस्ते एप्स, और सोशल मीडिया पर ओछे दिखावे ने मन-मस्तिष्क को विकृत और संवेदनशून्य बना दिया है। बेटी को अधिकार तो सिखाया, पर कर्तव्य, परिवार भावना और रिश्तों की मर्यादा सिखाना भूल गये। तेज़ लाइफस्टाइल, हाई एक्सपेक्टेशन्स, रिलेशनशिप का बोझ, वासनात्मक कंटेंट ने मन को बीमार कर दिया। डिप्रेशन, चिड़चिड़ेपन, अहंकार, द्वेष और वैचारिक विकृति ने मानसिक शक्ति को क्षीण कर दिया है।
जब तक बेटी को मोबाइल से पहले गीता और रामायण, फैशन से पहले चरित्र की शिक्षा और अधिकार से पहले कर्तव्य का पाठ नहीं पढ़ाया जाएगा– तब तक समाज में विकृति बढ़ती रहेगी।
बेटियों को उड़ान दीजिए, मगर उनके पंखों में संस्कार का रंग भी भरिए। ‘जो मन में आए करो’ की आज़ादी नहीं, ‘जो सही है वही करो’ का विवेक सिखाइए। संस्कार, संयम और जिम्मेदारी के साथ स्वतंत्रता दीजिए।
आज बेटों की हत्याएँ, तलाक, झूठे केस, परिवार बिखरना
सिर्फ आपराधिक संख्या नहीं, एक सुनियोजित विकृति का परिणाम है। सिर्फ लड़की का पक्ष सुनना भी अन्याय है। यदि हर बेटी देवी है, तो बेटा भी बलि का बकरा नहीं। अब समाज को बोलना होगा कि उसे संस्कार विहीन नारीवाद नहीं चाहिए। हमें संस्कारयुक्त, दायित्वबोध वाली बेटियाँ चाहिए।
बेटी माँ-बाप की गोद में फूल बनकर महके, सब यही चाहते हैं। लेकिन वही फूल संस्कारहीनता के कारण शूल न बन जाये यह भी ध्यान देने योग्य है। आजकल अभिभावक बच्चों से संवाद नहीं करते और उन्हें अच्छे-बुरे की शिक्षा नहीं देते हैं; यह समाज का सबसे बड़ा दोष है। अध्यात्म और पारिवारिक मूल्यों के संगम से ही हम रिश्तों, बेटियों और परिवारों को फिर से जोड़ सकते हैं। आधुनिकता जरूरी है, मगर मानवता और मर्यादा भी जरूरी है। बेटियों को हक दीजिए, मगर साथ में धैर्य, जिम्मेदारी, और मनोबल भी दीजिए।
“बेटियों को पंख दीजिए, मगर दिशा भी सिखाइए। ताकि वो चील नहीं, गृहलक्ष्मी बनकर लौटें। याद रखें संस्कार ही सबसे बड़ा श्रृंगार है। वर्ना आधुनिकता की आग, घरों को राख बना देगी।”