वे किसान नहीं, धूर्त्त और मक्कार हैं, पहचानिए!

— आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय

उत्तरप्रदेश, उत्तराखण्ड, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, बिहार, झारखण्ड तथा राजस्थान के किसान ‘रजाई’ में क्यों दुबके हुए हैं? लज्जा नहीं आती, सिंघु बॉर्डर पर पंजाब-हरियाणा के बूढ़े-बच्चे-जवान, महिलाएँ एक पैर पर खड़ी हैं, जबकी उक्त सातों राज्यों के किसानों की संवेदना मर-सी गयी हैं।

ऐसे राज्य के प्रत्येक किसान को डूब मरना चाहिए, जो स्वयं को ‘किसान’ कहते हैं; खेती-किसानी-बाग़वानी करते हैं और सिंघु बॉर्डर पर कड़कती ठण्ढ में देश के सभी किसानों के हित के लिए जूझ रहे सिक्खमय दिख रहे परिदृश्य की लगातार ‘अनदेखी’ करते आ रहे हैं।

उक्त सातों राज्यों के किसान-संघटनों के नेता किस ‘बँसवारी’ या फिर ‘खोप’ में छुपे हुए हैं? ज़ाहिर है, कथित नेताओं की आवाज़ और विरोधिनी शक्ति या तो ख़रीद ली गयी है या फिर ‘नपुंसक’ हो गयी है। सिक्खमय परिलक्षित हो रहे किसान-क्रान्ति के समर्थन में एक शब्द तक न व्यक्त करनेवाले किसानों की जिह्वा कटकर गिर क्यों नहीं जाती? धूर्त्त-मक्कारो! एक बार सिंघु बॉर्डर पर जाकर अपना ‘नैतिक’ समर्थन जता तो आते। ज़ाहिर है, नैतिकताविहीन सामर्थ्यरहित हो जाते हैं।
क्लीव मनोवृत्ति का प्रदर्शन करनेवाले ‘किसान’ नहीं , नितान्त निकृष्ट अवसरवादी-गिद्धदृष्टि की तरह तात्कालिक लाभ के प्रति ‘भुक्कड़’-सदृश अपना कुत्सित- गर्हित परिचय देते आ रहे हैं। वे वही छद्म किसान हैं, जो इसकी-उसकी, सगे-सम्बन्धियों की ज़मीन हड़पकर किसान बने बैठे हैं और बेईमानी-धूर्त्तता-मक्कारी की नीवँ पर बने किसानी मचान पर पलथी मारे ‘आदर्शवाद’ बघारते रहते हैं।

ऐसे समाजघाती किसानों से सावधान रहें।

(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; ४ जनवरी, २०२० ईसवी।)