तब मैं वायुसेना से रिटायर होकर दिल्ली आया ही था।
एक रोज वायु सेना स्टेशन तुगलकाबाद के सामने स्थित खानपुर बस स्टॉप के पास खड़ा हुआ था। तभी एक बस आकर रुकी और कुछ सवारियां उसमें चढ़ने लगी। मैं क्या देखता हूं कि एक 18-20 वर्ष का एक सुकड़ी सा छपरी टाइप लड़का एक अधेड़ व्यक्ति की पीछे वाली जेब से दो उंगली डालकर पर्स निकालने की कोशिश कर रहा है।
पहली बार में सफलता न मिली तो वह जेबकतरा उस व्यक्ति के पीछे बस में चढ़ने लगा। मुझ से रहा न गया मैं जोर से चिल्लाया और जाकर उस जेबकतरे का कॉलर पीछे से पकड़ लिया। इससे पहले कि मैं कुछ और कहता और करता, वह 40 किलो का जेबकतरा एकदम से नीचे बैठ गया और चलती हुई सड़क दौड़ते हुए पार करके दूसरी तरफ जाकर भीड़ में छूमंतर हो गया ।
यह सब मुश्किल से एक-आध मिनट में घटित हुआ होगा । तभी देखता हूं एक बॉडी बिल्डर टाइप व्यक्ति मेरी तरफ आ रहे हैं। मुझे लगा शायद वह मुझे शाबाशी देने आए होंगे कि आपने एक व्यक्ति की जेब कटने से बचा ली। लेकिन वह बॉडी बिल्डर मेरे पास आए और बोले- “लगता है गांव से आए हो इसीलिए तुम्हें पता नहीं है कि इन जेबकतरों के पास ब्लेड रहती है। पकड़े जाने पर मुंह या गले पर ब्लेड मारने में संकोच नहीं करते। यहां हीरोगीरी मत किया करो। यह दिल्ली है, यहां यह सब चलता रहता है।”
उस समय तो मैं यह सुनकर हैरान रह गया था लेकिन अब मुझे समझ में आता है कि क्यों एक शांतिदूत एक किशोरी बेटी को सरेराह चाकू से गोदता रहा, पत्थर से कुचलता रहा और लोग बिल्कुल पास से ऐसे गुजरते रहे जैसे कि कुछ हुआ ही न हो????
मैं यह नहीं कहता की उससे कोई सीधे भिड़ ही जाए क्योंकि उसके हाथ मे चाकू था और सिर पर खून सवार था। लेकिन दूर से पत्थर, डंडा फेंककर मार सकते थे, जोर से चिल्ला सकते थे। कुछ तो करते। शायद उसकी जान बच जाती।
कौन कहता है कि दिल्ली दिल वालों की है????????????
(विनय सिंह बैस, एक शर्मसार दिल्लीवासी)