सैद्धांतिक दृष्टि से सनातन सतधर्म में मनुष्यों पर केवल तीन ऋण होते हैं…
- पितृ ऋण
- ऋषि ऋण
- देव ऋण
ये तीनो ऋण ब्रह्मचर्य आश्रम के 25 वर्षीय विद्यार्थी जीवन के दौरान उत्पन्न होते हैं।
- सबसे पहले माता-पिता जो पालन-पोषण करते हैं उनका ऋण…!
इससे तन का विकास (PQ) होता है।
इसे ही पितृ ऋण कहते हैं। - दूसरे शिक्षक-प्रशिक्षक जो विद्या प्रदान करते हैं उनका ऋण है..!
इसे ही ऋषि ऋण कहते हैं।
इससे ही मन का विकास (IQ) होता है। - तीसरे प्रकृति और पर्यावरण हैं जो हमे गुण-संस्कार प्रदान करते है जिससे (EQ) का विकास होता है।
इसे ही देव ऋण कहते हैं।
बस इतने ही कुल 3 ऋण हैं।
वह SQ तो इन तीनों ऋणों को उतारने पर ही खुद विकसित हो जाता है।
जिसके शिर पर ये तीनों ऋण चढ़े हुए हैं उस ऋणग्रस्त कर्जदार मनुष्य का आत्मिक विकास (SQ) संभव नहीं होता।
इन तीनो ऋणो को चुकाने के लिए तीन उपाय हैं—
- संततिपालन
- ज्ञानप्रसार
- धर्मप्रचार
अथवा….
विवाह
पौरोहित्य
परिव्रज्या
अथवा
गृहस्थ
वानप्रस्थ
संन्यास
इन तीन आश्रमों के उत्तरदायित्व को स्वीकारना।
यही तीन वास्तविक उपाय हैं मनुष्यों के ऋणमोचन हेतु।
किन्तु..!
जो लोग SQ विकसित करके देवसभ्यता अर्थात पूर्णतः लोकहितार्थ समाज सेवा में प्रविष्ट हो जाते हैं उनके सभी ऋण स्वतः समाप्त हो जाते हैं।
क्योंकि
देवलोक का जीवन जगत के हितार्थ ही संलग्न रहता है 100%….
देवता इसलिए ऋणमुक्त होते हैं क्योंकि उनका पूरा जीवन ही सर्वहितकारी होता है।
देवता पूर्णतः स्वार्थमुक्त होते हैं।
पूर्णतः सर्वहितकारी आत्मा ही SQ है।
यही नेता है।
यही नायक है।
यही मंत्री है।
यही गुरु है।
इसके मार्गदर्शन में अनुशासित व्यक्ति कभी दुःखी नहीं रह सकता।
संसार में जो जितना सत्यानुशासित है वह उतना ही सुखी और सौभाग्यशाली होता है।
सत्य ही SQ है।
सत्यानुशासन से ही SQ का विकास होता है।
✍️?? (राम गुप्ता – स्वतन्त्र पत्रकार – नोएडा)