★ आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय
धीके लागल ए बबुआ! तहार नगरी,
देख छलकत बा कइसे, तहार गगरी।
बिधाता क बनवला, जियान कइल तू,
हेने अइह मत, जइह होने क डगरी।
एही करनी से करिखा पोताइ लेहल तू,
सोचबो करिह ना आवे क, हमार कगरी।
का सोचि क कटवल सब फेड़वन क तू?
लागे लागल अब चीरीं तहार टँगरी।
गिरगिट-लेखा उतान, कइसे चल ल तू,
थू-थू होखे अब लागल, तहार सगरी।
फरका रहि क तनी, तू अब सोचल कर,
काहें उछलत बा रोजे, तहार पगरी।
राजा-परजा एगो रूप सिकवा क है,
मउका पाई जब जनता तहरा क रगरी।
धीके लागल ए बबुआ! तहार नगरी,
देख छलकत बा कइसे, तहार गगरी।
(सर्वाधिकार सुरक्षित― आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; २६ जुलाई, २०२३ ईसवी।)