“मील के पत्थर पड़े घायल, ठिठके पाँव, ओझल गाँव”– अटलबिहारी वाजपेयी

अटलबिहारी वाजपेयी के जन्मदिनांक (२५ दिसम्बर) के अवसर एक विशेष प्रस्तुति

देश के लब्धप्रतिष्ठ कवि, पत्रकार एवं पूर्व-प्रधानमन्त्री अटलबिहारी वाजपेयी से अन्तरंग भेँटवार्त्ता करते हुए, डॉ० पृथ्वीनाथ पाण्डेय।

(एक अति संवेदनशील कवि-पत्रकार एवं देश के पूर्व-प्रधानमन्त्री अटलबिहारी वाजपेयी के साथ डॉ० पृथ्वीनाथ पाण्डेय-द्वारा की गयी एक मुक्त भेँटवार्त्ता)

महोदय! मै आपसे ‘राजनीति’ विषय पर बिलकुल प्रश्न नहीँ करूँगा। मेरे सारे प्रश्न शिक्षा, साहित्य, पत्रकारिता आदिक से सम्बन्धित रहेँगे।

पृथ्वीनाथ– आपमे कवित्व-भाव कैसे जाग्रत् हुआ था?
अटलबिहारी– हमारा परिवार काव्यमय रहा है। पिता जी श्री कृष्णबिहारी वाजपेयी हिन्दीभाषा एवं ब्रजबोली के सिद्धहस्त हस्ताक्षर थे। उन्हेँ सुनकर मेरे भीतर की कविता भी कुलबुलाने लगती थी और सामने आ जाती थी। मै कुछ रचता था तब पिता जी से शाबाशी मिलती थी, जिससे मुझको रचनात्मक ऊर्जा प्राप्त होती थी। वैसे पिता जी के अलावा महात्मा रामचन्द्र वीर की रचना 'विजय पताका' को पढ़ने के बाद मैने अपने भीतर के कवि को ललकारा था :–
"टूटे हुए सपनों की कौन सुने सिसकी
अन्तर की चीर व्यथा पलकों पर ठिठकी
हार नहीँ मानूँगा
रार नई ठानूँगा।''
फिर आत्मगौरव के साथ कहा था :–
"काल के कपाल पे लिखता मिटाता हूँ
गीत नया गाता हूँ।''
पृथ्वीनाथ– आपने तो यह भी कहा था :–
"जीवन को शत-शत आहुति में,
जलना होगा, गलना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।'' एक उत्सुकता प्रश्न बनकर उत्तर की तलाश मे है; और वह है– आपको 'काल' को ललकारने की आवश्यकता क्योँ आ पड़ी?
अटलबिहारी– पृथ्वीनाथ जी! आप भी कवि हैँ, फिर आप यह भी जानते हैँ कि कवि की मन: स्थिति कभी एक-सी नहीँ रहती। वह स्वयं के अनुभव को समझता ही है, दूसरोँ के अनुभव को भी अपना बना लेता है और उसे अभिव्यक्ति का साधन बनाकर अतिशयोक्ति को भी अंगीकार कर लेता है। यही कवि की कल्पनाशक्ति का प्रमाण भी है।
फिर मैने तत्काल प्रतिप्रश्न कर दिया, "इसका अर्थ यह है कि विशेषत: कवि देश-काल-परिस्थिति एवं पात्र से प्रभावित होकर संवेदना के धरातल पर सर्जन-कर्म मे प्रवृत्त होता है?
अटलबिहारी– निस्संदेह, किसी रचना का सत्य यही है। वैसे भी मैने अभी तक किसी के प्रति ईर्ष्या, द्वेष, मात्सर्यादिक से सुदूर रखा है; क्योँकि मेरे पास एक कविहृदय है।
पृथ्वीनाथ– आप जब एक विद्यार्थी के रूप मे अध्ययन कर रहे थे तब आपका मूल और मुख्य उद्देश्य क्या था?
अटलबिहारी– एक पारंगत अध्यापक के रूप मे दिग्भ्रमित समाज के अंग को सकारात्मक और स्वस्थ दिशा की ओर मोड़ना; क्योँकि मेरे पिता जी पण्डित कृष्णबिहारी वाजपेयी जी अध्यापक-कर्म मे ही संलग्न थे। वे भी चाहते थे कि उनका पुत्र एक आदर्श अध्यापक के रूप मे समाज का स्वस्थ पथप्रदर्शन करे; परन्तु ईश्वर को कुछ और ही मंज़ूर था।
पृथ्वीनाथ– आप पत्रकारिता के साथ कैसे जुड़े?
अटलबिहारी– मेरी वैचारिक मुखरता और समदर्शिता ने मुझे पत्रकारिता की ओर मोड़ दिया था।
पृथ्वीनाथ– आपने समय-समय पर 'राष्ट्रधर्म', 'पाञ्चजन्य' एवं 'वीर अर्जुन' का सम्पादन-दायित्व सम्भाला था, जो एक संघटन-विशेष की नीतियोँ का प्रतिपादन करनेवाली पत्रकारिता रही, जबकि पत्रकारिता समग्र समाज के साथ जुड़ी रहती है, फिर आपने उस प्रकार के पत्रकारीय कर्म मे स्वयं को कैसे ढाला?
अटलबिहारी– निस्संदेह, संघटन-विशेष की पत्रकारिता की एक संकुचित सीमा होती है; हम समग्र मे उसे पत्रकारिता नहीँ कह सकते; वह आंशिक पत्रकारिता होती है। यहाँ एक सुस्पष्ट सीमारेखा रहती है, जिसके भीतर ही सम्पादक को रहना पड़ता है।
पृथ्वीनाथ– तब आपके भीतर की पत्रकारिता छटपटाती नहीँ थी?
अटलबिहारी– छटपटाती थी; परन्तु उसका शमन 'वीर अर्जुन' के माध्यम से कुछ हद तक कर लेता था।
पृथ्वीनाथ– महोदय! आपने तो बड़ी संख्या मे कविताओँ की रचना की है। मै यह जानना हूँ– आज आप कौनसी एक कविता सुनाना चाहेँगे?
अटलबिहारी– पृथ्वीनाथ! तुम्हारे सारे प्रश्नो सुनकर ऐसा प्रतीत हो रहा है, मानो अटलबिहारी वाजपेयी का आत्मा भौतिक अटलबिहारी से संवाद कर रहा है। सुनना ही चाहते हो तो सुनो :–
"मैं न चुप हूँ, न गाता हूँ
सवेरा है, मगर पूरब दिशा मे
घिर रहे बादल रूई से धुंधलके मे।
मील के पत्थर पड़े घायल
ठिठके पाँव, ओझल गाँव
जड़ता है न गतिमयता।
स्वयं को दूसरों की दृष्टि से
मैं देख पाता हूँ।
न मैं चुप हूँ, न गाता हूँ।''
पृथ्वीनाथ– एक प्रश्न करूँ?
अटलबिहारी– हाँ बोलो।
पृथ्वीनाथ– इन पंक्तियोँ मे मन, भाव, हृदय तथा विचार की बाध्यता नहीँ दिख रही है?
अटलबिहारी– एक कवि ने कह दिया; अब तुम जो समझो।
पृथ्वीनाथ– महोदय! वर्ष १९९८ मे आपके प्रधानमन्त्रित्व-काल मे 'पोखरन– दो' के रूप मे जिसप्रकार से एक-के-बाद-एक परमाणु-विस्फोट किये गये थे, उससे आपका पुरुषार्थ वैश्विक सामरिक मंच पर बहुविध रेखांकित हुआ था, इस गौरवपूर्ण विषय पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है?
अटलबिहारी– देखो! वह परीक्षण कोई पुरुषार्थ-प्रकटीकरण करने के लिए नहीँ था। मै समझता हूँ कि देश की नीति है, न्यूनतम अवरोध होना चाहिए, जो विश्वसनीय होना चाहिए, इसीलिए परीक्षण करने का निर्णय किया गया।
पृथ्वीनाथ– एक सहृदय कवि की जय हो!
अटलबिहारी-- "मंगल-मंगल।''

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