भारतेन्दु हरिश्चन्द तो एक परिपक्व और पारदर्शी राष्ट्रवादी थे

आज (९ सितम्बर) भारतेन्दु हरिश्चन्द (यहाँ ‘हरिश्चन्द्र’ अनुपयुक्त है।) का जन्मदिनांक है।

आज के दिनांक मे समाचारपत्रोँ और वैद्युत्-माध्यम ने खड़ी बोली की प्रतिष्ठा करनेवाले और साहित्य को नयी क्रान्ति का माध्यम बनानेवाले सारस्वत हस्ताक्षर स्वनामधन्य भारतेन्दु जी को विस्मृत कर गये हैँ; क्योँकि वे न तो जनवादी थे, न प्रगतिवादी थे, न जनसंस्कृतिवादी थे तथा न ही तथाकथित हिन्दुत्ववादी; वे तो एक परिपक्व और पारदर्शी राष्ट्रवादी थे।

अत्यन्त दुःख-अतीव क्षोभ-महा आश्चर्य तथा अतिशय लज्जा का विषय है कि देश के विद्वान्-अध्येता-शोधकर्त्ता -कर्त्री-साहित्यकार-समीक्षक-अध्यापक तथा सभी पढ़ाकू काव्य मेँ नयी प्रवृत्तियोँ को लानेवाले लब्ध-प्रतिष्ठ (लब्ध-प्रतिष्ठित’ अशुद्ध है।) भारतेन्दु हरिश्चन्द का नाम तक नहीँ जानते; सभी ‘भारतेन्दु हरिश्चन्द्र’ का प्रयोग करते है, जबकि उनका नाम ‘भारतेन्दु हरिश्चन्द’ था। वे अपना नाम ‘भारतेन्दु हरिश्चन्द’ लिखा करते थे, न कि ‘भारतेन्दु हरिश्चन्द्र’।

हिन्दी का नवीन काव्य भारतेन्दु हरिश्चन्द (१८५०-८५) से आरम्भ होता है। वास्तव मे, भारतेन्दु प्राचीन और आधुनिक काव्य के सन्धिस्थल पर खड़े दृष्टिगोचर होते हैँ। उनका प्राचीन काव्य अतीव विस्तृत है और उसमे हमे सन्त-काव्य, भक्ति-काव्य तथा रीति-काव्य की परम्पराएँ स्पष्टतः लक्षित होती हैँ। भारतेन्दु का महत् कर्म यह रहा है कि उन्होँने नव काव्य-धारा का प्रवर्तन किया था।

वस्तुतः आधुनिक काव्य की अनेक नयी प्रवृत्तियोँ का उदय उन्हीँ की रचनाओँ मे दिखता है और शताब्दी के अन्त तक काव्य मे वे प्रवृत्तियाँ स्थायित्व ग्रहण कर लेती हैँ। इसी से आधुनिक काव्य के प्रथम चरण को ‘भारतेन्दु युग’ (१८५०-१९००) की संज्ञा दी गयी है।

भारतेन्दु जी ने परतन्त्र भारतवासियोँ का इन शब्दोँ मे आह्वान किया था :―
”गयो राजधन तेज रोष बल ज्ञान नसाई।
बुद्धि वीरता श्री उछाह सूरता बिलाई।।
आलस कायरपनो निरुद्यमता अब छाई।
रही मूढ़ता बैर परस्पर कलह लराई।।
सब बिधि नासी भारत प्रजा कहूँ न रह्यो अवलम्ब अब।
जागो-जागो करुनायतन फेरि जगिहौ नाथ कब?
सीखत कोउ न कला उदरि भरि जीवत केवल।
पशु-समान सब अन्न खात पीअत गंगाजल।।
धनि विदेश चलि जात तऊ जीय होत न चंचल।
जड़ समान ह्वै रहत अकाल हत रुचि न सकल कल।।
जीवत विदेश की वस्तु न लै ना किन्तु कछु कहि करि सकत।
जागो-जागो अब साँवरे सब कोऊ रुख तुमरो तकत।।”

(सर्वाधिकार सुरक्षित― आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; ९ सितम्बर, २०२४ ईसवी।)