हिन्दी को ‘राजभाषा’ और देवनागरी को ‘राजलिपि’ घोषित करानेवाले राजर्षि टण्डन जी

आज (१ अगस्त) भारतरत्न पुरुषोत्तमदास टण्डन जी की जन्मतिथि है।

— आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय

राजर्षि पुरुषोत्तमदास टण्डन जी एक कुशल वक्ता, अभिभाषक, विधिज्ञ, स्वाधीनता-संग्रामसेनानी, साहित्यकार, पत्रकार, सन्त राजनेता तथा विदेह-जैसे वीतरागी महामानव थे। वे एक उत्कृष्ट शब्दधर्मी और सम्पन्न विचारक थे। कुछ ही लोग जानते हैं कि वे एक उत्तम कोटि के काव्यशिल्पी भी थे। १९०५ ईसवी में इलाहाबाद-निवासी टण्डन जी जब विधि के विद्यार्थी थे तब उन्हीं दिनों अँगरेज़ों का दिल्ली में एक दरबार होनेवाला था। वैसे अवसर पर अँगरेज़ों की भारत-विरोधी नीतियों के प्रति आक्रोशित टण्डन जी ने अँगरेज़ों की शासनपद्धति पर कटाक्ष करनेवाली एक दीर्घ कविता की रचना की थी, जिसका शीर्षक था– ‘बन्दरसभा महाकाव्य’।

उनके गुरु और उनके पड़ोसी हिन्दी के लब्ध-प्रतिष्ठ निबन्धकार पण्डित बालकृष्ण भट्ट को वह कविता बहुत पसन्द आयी थी, उन्होंने अपनी हिन्दी-मासिकी ‘हिन्दी प्रदीप’ में २४ जुलाई, १९०५ ईसवी की तिथि अंकित कर, उस क्रान्तिकारी कविता को प्रकाशित किया था। वह वही अवसर था, जब टण्डन जी ने भारतीय राजनीति में प्रवेश किया था। भट्ट जी से जब कोई उस कविता के विषय में संवाद करता था तब वे गर्व के साथ कहते थे, ”ऐसी कविता रचने का साहस पुरुषोत्तम ही कर सकते हैं, जिनके मन में ब्रिटिश शासन के अत्याचार के विरुद्ध विद्रोह की ज्वाला धधक रही है।”

बहुत कम लोग जानते हैं कि १९४९ ई० में संविधानसभा में बहुमत से हिन्दी के पक्ष में प्रस्ताव पारित कराकर हिन्दी को ‘राजभाषा’ और देवनागरी लिपि को ‘राजलिपि’ घोषित कराने का श्रेय टण्डन जी को ही जाता है। उसके लिए ‘हिन्दुस्तानी’ की झण्डाबरदारी कर रहे महात्मा गांधी जी के साथ उनका ‘मनभेद’ हो गया था। टण्डन जी की ऊर्जस्विता और ओजस्विता से प्रभावित होकर सन्त पुरुष देवरहा बाबा ने अनेक विरोधों के बावुजूद पुरुषोत्तमदास टण्डन जी को ‘राजर्षि’ पदवी से आभूषित कराया था।

हमारी लिपि और भाषा को गौरव के शिखर पर समासीन करनेवाले महाहुतात्मा राजर्षि और भारतरत्न को हम नमन करते हैं।

(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; १ अगस्त, २०२१ ईसवी।)