महीयसी महादेवी वर्मा : श्वेतवसना सिद्ध कवयित्री

चित्र-विवरण-- सत्तर के दशक के उत्तरार्द्ध में-- आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय और महादेवी वर्मा।

प्रयाग-आगमन के बाद और क्रॉस्थवेट स्कूल, इलाहाबाद मे प्रवेश लेने के बाद महादेवी जी की साहित्य-साधना अबाध्य गति मे चलती रही। ‘माँ ने सुनी एक करुण कथा’ का प्राय: सौ छन्दोँ मे वर्णन कर, महादेवी जी ने खण्ड काव्य की रचना कर दी थी। सुभद्रा कुमारी चौहान जी से उनकी भेँट इसी विद्यालय मे हुई थी, तब महादेवी जी पाँचवीँ और सुभद्रा जी सातवीँ कक्षा मेँ पढ़ती थीँ। मिडिल से पूर्व ही महादेवी जी का ध्यान बाह्य जीवन के दु:ख की ओर गया और उसके बाद से उनकी कृतियाँ ‘अबला’, ‘विधवा’ आदिक समाज मे प्रतिष्ठित हुईँ। स्कूल के छात्रावास मे महादेवी जी किसी से भी बहुत कम बोलती थीँ। वे गुमसुम बैठी अपनी पुस्तकोँ से संवाद करती रहती थीँ। श्रीधर पाठक की पुत्री ललिता पाठक के साथ उनका विशेष लगाव था। स्कूल मे उनका जीवन ‘बाल भगतिन’-जैसा रहता था। वे अपनी इसी प्रवृत्ति के कारण कवि-सम्मेलनो भागीदारी नहीँ कर पाती थीँ। विद्यापीठ और घर मे बाहरी-भीतरी क्षेत्रोँ की सीमाएँ रहीँ। वे इलाहाबाद से प्रकाशित क्रान्तिकारी पत्रिका ‘चाँद’ मे १९३१ से १९३४ ईसवी तक लिखती रहीँ, जिनमे से २१ निबन्धोँ का संकलन नारी की स्थिति, अधिकार, कार्यक्षेत्र, व्यवसाय, समस्याओँ तथा समाज मे नारी की स्थिति का अमूल्य दस्तावेज है। साहित्यिक परिवार मे से इलाहाबाद मे आनेवाले साहित्यकारोँ के लिए तो उनका निवास ही घर-जैसा होता था; अन्य अतिथियोँ के लिए भी उनका द्वार मुक्त रूप से खुला रहता था। मैथिलीशरण गुप्त ने कहा था, “मेरी प्रयाग-यात्रा केवल संगम-स्नान से पूरी नहीँ होती; उसको सर्वथा सार्थक बनाने के लिए मुझे सरस्वती (महादेवी) के दर्शन के लिए प्रयाग महिला विद्यापीठ जाना पड़ता है। संगम में कुछ फूल-अक्षत चढ़ाना पड़ता है। सरस्वती मन्दिर मे कुछ प्रसाद मिलता है। ‘साहित्यकार संसद्’ हिन्दी के लिए उन्ही का प्रसाद है।”

विभिन्न आयोजनो मे महादेवी जी जीवनपक्ष, सामाजिक पक्ष, सामाजिक प्रतिक्रिया तथा सामाजिक मूल्योँ आदिक पर विशद चर्चा करती थीँ। यह एक अलग विषय है कि वे अन्तर्मुखी थीँ; विरोध को जीती थीँ और प्रतिकार करने की क्षमता भी विकसित कर लेती थीँ। ऐसा नहीँ देखा गया कि वे समकालीन साहित्यकारोँ मे इतनी घुली-मिली रही होँ अथवा घुल-मिल जाती रही होँ। हाँ, वे सबका सम्मान करती थीँ। यही कारण है कि जब भी कोई बाहर का साहित्यकार इलाहाबाद आता था, वह महादेवी जी से मिलने की अभिलाषा को प्राथमिकता देता था। इलाहाबाद के सभी प्रसिद्ध साहित्यकार उनसे भेँटकर, तत्कालीन काव्य-परिदृश्य पर सवाद अवश्य करते थे; उनसे दिशा-निर्देश की चाह रखते हुए मिलनेवाले साहित्यकार-लेखक, कवि-कवयित्री, पत्रकार, समीक्षक आदिक उनकी ओर से कभी निराश नहीँ होते थे। यही कारण है कि अशोकनगर, इलाहाबाद-स्थित उनका निवास ‘साहित्यकार-संसद्’ के रूप मे विख्यात रहा।

निराला जी की भाँति वे भी किसी साहित्यकार का अपमान ‘स्वयं’ का अपमान समझती थीँ। आर्थिक परिस्थिति से विक्षिप्त निराला जी को महल मे रखने का उनका स्वप्न ‘साहित्यकार-संसद्’ निर्माण से पूर्ण हुआ था। यह अलग बात है कि ‘साहित्यकार-संसद्’ वर्तमान में ‘विवाद’ का विषय बना हुआ है और जिस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उसका निर्माण कराया गया था, वह अब पूरी तरह से इलाहाबाद और बाहर के साहित्यकारोँ को अँगूठा दिखा रहा है। उस ट्रस्ट की सम्पत्ति को कुछ लोग अपनी सम्पदा मानकर स्वेच्छाचारिता का परिचय दे रहे हैँ और स्वयं को साहित्यकार-कवि माननेवाले लोग ‘गांधी जी के तीन बन्दर’ का चरित्र जी रहे हैँ।

बहरहाल, महीयसी महादेवी वर्मा ने अपनी सारस्वत लेखनी से इलाहाबाद-सहित शेष भारत को जो शब्दधर्मिता का जो गुण-धर्म दिया है, वह चिर-कालीन स्मरणीय रहेगा।

(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; ११ सितम्बर, २०२४ ईसवी।)