नारी के भीतर-बाहर का समूचा सच

आज ८ मार्च है; आइए! हम भी गाल बजा लें

नारी-समाज में और नारी-समाज के प्रति जागरूकता आज बढ़-चढ़कर दिख रही है वा यों कहें, परवान चढ़ रही है। इसका मुख्य कारण रहा है, हम भारतीय अपना क़लम ('अपनी क़लम' अशुद्ध है; क्योंकि क़लम पुंल्लिंग-शब्द है।) अपने पास रखते नहीं; ज़रूरत पड़ने पर दूसरों के हाथ से वा उसके सामनेवाले की जेब के पास हाथ को पहुँचाते हुए उसके क़लम को खींच लेते हैं, तब तक यह वाक्य पूरा भी नहीं होता :– ज़रा कलम दे...।

आज वही स्थिति सभ्यता और संस्कृति की है। हम भारतीय अपनी पौर्वात्य सभ्यता और संस्कृति 'पुरा-पाषाणकाल' के समय के रखे हुए पत्थरों के नीचे दबाकर सीने तानते दिखते हैं, जबकि सच यह है कि भौतिकता के रेशमी रुमाल मे पाश्चात्य सभ्यता-संस्कृति को गठियाकर शान से अपने व्यक्तित्व का फटे दूध की तरह से प्रदर्शन करते आ रहे हैं।
 
ऐसे मे, नारी-स्वच्छन्दता की बात उभारकर करनी होगी। विज्ञापन का संसार, मॉडलिंग का आकर्षण, अति भौतिकता की दौड़ और होड़ मे एक-दूसरे से आगे निकलने के लिए किसी भी स्तर तक जाने की प्रवृत्ति बालिकाओं, किशोरियों तथा तरुणियों को उद्दाम वासना से भरपूर करती आ रही हैं। यहीं से शुरू होती है :– विश्वासघात, हत्या, आत्महत्या की एक बीभत्स ('वीभत्स' अशुद्ध है।) शृंखला, जिसकी कड़ियाँ बनती हैं, अबोध-बोध किशोरियाँ और युवतियाँ।
  
अब तो 'उपयोग करो और दूर फेंको' (यूज़ ऐण्ड थ्रो) की संस्कृति अपनी भरपूर यौनावस्था को प्राप्त कर चुकी है। देखा जा रहा है, उपयोग करनेवाला/वाली और उपयोग होने/करानेवाला/वाली, अपने-अपने स्तर से संतुष्ट है; क्योंकि उपयोग करानेवाली एक निर्धारित अवधि तक उपयोग कराती है और लक्ष्य अर्जित करते ही दूसरी ओर मुड़ जाती है। उपयोग करनेवाला भी ऐसा ही लक्ष्य निर्धारित करके चलता है। 
 
हाँ, कतिपय स्थितियाँ इससे भिन्न होती हैं, जहाँ नारी अपने विवेक और सामर्थ्य का समुचित उपयोग करते हुए गर्वपूर्वक जीवन के हर क्षेत्र मे प्रगतिमान है; अग्रसर है। उनकी उपलब्धियों को लेकर देश गौरवान्वित होता आ रहा है। वास्तव मे, आज प्रत्येक नारी को इसी पथ का अनुसरण करते हुए, अपने गन्तव्य की ओर बढ़ना होगा।
 
आज के समाचार-चैनलों और कल के अख़बारात मे परम्परा का भराव दिखेगा और ९ मार्च के बाद से अगले ७ मार्च तक ख़ामोशी छायी रहेगी, श्मशानघाट और क़ब्रगाह की तरह से– निस्तब्ध और नीरव परिदृश्य!

“आ बैल! ले मार” को चरितार्थ करनेवाला संवैधानिक अधिकार ‘लिव-इन रीलेशन’ भारतीय विधान की हवा निकालता आ रहा है।

नारी का मान-मर्दन करनेवाले खुली हवा मे साँस ले रहे हैं और सामाजिक व्यवस्था के अत्याचार की शिकार महिलाएँ अँधेरे मे गुमसुम पड़ी हुई हैं, जबकि समाज का एक वर्ग खायी-अघायी महिलाओं की पद-प्रतिष्ठा कर, ‘चार सौ बीस’ इंच का सीना ताने खड़ा दिख रहा है।

महिला का ‘काल’ बनती महिला के चरित्र-चाल-चेहरा और ‘त्रिया चरित्र’ पर भी आज का ८ मार्च टुकड़े-टुकड़े मे रौशनी फेंकता नज़र आ रहा है और सावधान कर रहा है– नज़रिये को सँभाल कर रखिए, कहीं लचक न जाये; बल खाने की आशंका बलवती है। जनाब! इज़्ज़त बहुत सस्ती है; देश की हर गली मे इज़्ज़त ‘उतारने’ और ‘उतार कर चढ़ाने’ की दुकाने चौबीस घण्टे खुली रहती हैं। आप शर्मो हया के नौकर वा मालिक बनकर इज़्ज़त तार-तार कर सकते हैं; क्योंकि पुरुष-प्रधान सत्ता ने आपको इसके लिए अधिकृत कर रखा है, जिसे नारी-सत्ता भी हवा देती आ रही है।

वाह रे कुम्भकर्णी भारतीय समाज…………….!..?

(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; ८ मार्च, २०२४ ईसवी।)