आयुर्वेद चिकित्सा के आधार वात, पित्त और कफ

★वात, पित्त, कफ दोष के कारण , लक्षण , और इलाज★

★वात क्या होती है ★
वात या वायु तीनों दोषों में सबसे अधिक महत्वपूर्ण है | ‘वात’ या ‘वायु’ यह दोनों ही शब्द संस्कृत के वा गतिगन्धनयो: धातु से बने हैं, इसके अनुसार जो तत्व शरीर में गति या उत्साह उत्पन्न करें, वह वात अथवा वायु कहलाता है | इस प्रकार शरीर में सभी प्रकार की गतियां इसी वात के कारण होती है | वात को ही ‘प्राण’ भी कहा गया है | अथर्ववेद में ‘प्राणाय नमो यस्य सर्वमिदं वशे’ कहकर संपूर्ण ब्रहमांड को प्राण के वश में कहा गया है | चरक में वायु को ही अग्नि का प्रेरक, सभी इंद्रियों का प्रेरक तथा हर्ष व उत्साह का उत्पत्तिस्थान कहा गया है; क्योंकि यह वायु ही शरीरगत सभी धातुओं को अपने अपने कार्य में प्रवृत्त करता है तथा शरीर को धारण करने वाला वायु ही है | यही प्राण वायु के रूप में पंचमहाभूतों में विधमान है, वात के रूप में त्रिदोष में स्थित है | वही वायु श्वास-प्रश्वास व उर्जा के रूप में देह को धारण करता है, इसी का नाम प्राण वायु या वात है |

★वात के गुण और कार्य ★

1-यह प्राण शब्द जीवनीय शक्ति का घोतक है।

2-यह मन, ज्ञानेंद्रियों और कर्म इंद्रियों को अपने-अपने विषयों और कर्मों में नियुक्त करता है।

3-शरीर की पाचक अग्नि और धात्वग्नियो को भी यही प्रदीप्त करता है।

4-हमारे शरीर में जो विभिन्न स्रोत हैं, उनके छोटे बड़े विवरों (खाली स्थानों) का निर्माण भी यही वात ही करता है।

5-रस, रक्त आदि प्रत्येक धातु की सूक्ष्म से स्थूल रचना तथा शरीर के एक अंग का दूसरे अंग से संबंध का कारण भी यही वात है | इसी के कारण गर्भ में स्थित भ्रूण का विकास व उसके आकार का निर्माण हो पाता है।

6-नाड़ीमंडल की सभी क्रियाओं का नियंत्रण इसी वात के अधीन है।

7-वात के बिना तो दूसरे दोनों दोष- पित्त और कफ भी पंगु के समान निष्क्रिय से रहते हैं, क्योंकि यह वात ही इन दोनों दोषों तथा मलो को अपने अपने स्थान पर स्थिर रखता है तथा आवश्यकता पड़ने पर अन्यत्र पहुंचाता है ।

8-इस प्रकार मल, मूत्र, स्वेद आदि मलो को शरीर से बाहर निकालने वाला यह वात ही है ।

जब यह अपनी समावस्था में रहता है तो सभी दोषों धातुओं और मलो को भी सम अवस्था में रखता है | परंतु जब यह दूषित या कुपित हो जाए, तो सभी दोषों, धातुओं, मलो और स्रोतों को भी दूषित कर देता है, क्योंकि गतिशील होने के कारण यह किसी भी दोष को दूसरे स्थान पर पहुंचा देता है, जिससे उस स्थान पर पहले से ही विद्यमान दोष में वृद्धि हो जाती है और रोग उत्पन्न हो जाता है ।

इस प्रकार आयुर्वेद के अनुसार शरीर में सभी प्रकार के रोगों का मूल कारण इसी वात का प्रकुपित होना ही है | जहां सामान्य दशा में वात दोषों और ⁠⁠⁠दूष्यों (धातु, ⁠⁠⁠मलों, उपधातुओं) को अलग-अलग रखता है, वही कुपित होने पर इनको आपस में संयुक्त कर देता है, जिससे रोग उत्पन्न हो जाते हैं ।

वात में एक गुण है – योगवाहिता, अर्थात अन्य दोषों के सहयोग से उनके गुणों को धारण करना | इस प्रकार जब यह पित्त दोष के साथ मिलता है तो उसमें दाह, उष्णता आदि पित्त के गुण आ जाते हैं, और जब कफ के साथ मिलता है तो उसमें शीतलता, क्लेदन (गीलापन) आदि गुण आ जाते हैं | यह वात स्थान और कर्म के भेद से पांच प्रकार का माना गया है प्राण, उदान, समान, व्यान और अपान |सभी प्रकार के रोगों की उत्पत्ति में वात का योगदान होता है, परंतु केवल वात के प्रकोप से उत्पन्न होने वाले नानात्मज रोग, संख्या में 80 माने गए हैं ।

★वात दोष के कारण ★
वेगरोध अर्थात मल-मूत्र, छीक आदि स्वाभाविक इच्छाओं को दबाकर रखना, खाए हुए भोजन के पचने से पहले ही फिर कुछ खा लेना, रात को देर तक जागते रहना, ऊंचा बोलना, अपनी शक्ति की अपेक्षा अधिक शारीरिक श्रम करना, लंबी यात्रा के समय वाहन में धक्के लगना, रूखे, तीते (तिक्त) अर्थात कड़वे और कसैले खाद्य पदार्थों का अधिक मात्रा में सेवन करना, सूखे मेवे अधिक मात्रा में खाना, बहुत अधिक चिंता करना, मानसिक परेशानी में रहना, अधिक संभोग करना, डरना, उपवास रखना, अधिक मात्रा में खाना तथा अधिक ठंडा खाना इन सभी कारणों से शरीर में वात दोष कुपित हो जाता है | वर्षा ऋतु में तो इन कारणों के बिना भी वात का प्रकोप स्वाभाविक रूप से हो जाता है | वात प्रकृति वाले लोगों में तो बहुत अल्प कारणों से ही वात का प्रकोप हो जाता है।

★वात दोष के लक्षण ★
जब शरीर में वात प्रकुपित हो जाता है, तो उससे शुष्कता, रूखापन, अंगों में शरीर में जकड़न, सुई की चुभन जैसा दर्द, संधि-शैथिल्य (हड्डियों के जोड़ों में ढीलापन), संधि-⁠⁠⁠च्युति (हड्डियों का खिसकना) हड्डी का टूटना, कठोरता, अंगो में कार्य करने की अशक्ति, अंगों में कंपन व अस्वाभाविक गति से अंगो का सुन्न पड़ना, शीतलता, कमजोरी, कब्ज, शूल (तेज पीड़ा), नाखून, दातों और त्वचा के रंग का कुछ काला या फीका पड़ना, मुंह का स्वाद कसैला या फीका होना आदि लक्षण प्रकट होते हैं | वात का मूलस्थान पक्वाशय (आँत) है | अन्न का मल भाग जब पक्वाशय में पहुंचता है, तो वात उत्पन्न होती है जो दूषित या प्रकुपित वात ही होती है ।

★प्रकुपित वात का उपचार ★
जिन कारणों से वात का प्रकोप होता है, उन कारणों को दूर करने तथा वात के विरोधी खान-पान, औषधियां और साधनों का प्रयोग करने से वात शांत हो जाता है | इसके अतिरिक्त वात जो अपने गुण-कर्म है, उनसे विपरीत (उल्टी) चिकित्सा करनी चाहिए | इस दृष्टि से निम्नलिखित उपायों का प्रयोग करना चाहिए ।

1- स्नेहन- अर्थात स्नेह पदार्थों (घी, तेल, वसा, मज्जा) का सेवन | उष्ण जल से स्नान करना तथा स्नेहयुक्त बस्ती (एनीमा) देना ।

2- स्वेदन या सेंक- गर्म जल से तथा वातनाशक औषधियों के काढ़े से स्नान व अवगाहन (काढ़े वाले टब आदि में बैठना) एवं अन्य गर्म पदार्थों का प्रयोग करके पसीना लाना ।

3- मृदु विरेचन- अर्थात स्निग्ध, उष्ण तथा मधुर (मीठे) अम्ल (खट्टे) तथा (लवण) नमकीन रस वाले द्रव्य से तैयार औषधि से हल्का विरेचन कराना, जिससे मल बाहर निकल जाए।

4- रोग वाले अंगों पर पुल्टिस व पट्टी (कपड़े से) बांधना, पादाघात अर्थात पैर से दबाव, वातनाशक द्रव्यों का नस्य लेना (नाक में डालकर ऊपर की ओर खींचना) उनका उबटन मलना, स्नान, संवाहन (हाथ से अंगों को दबाना) और मालिश करना।

5- वातहर औषधियों के काढ़े की धारा सिर पर डालना।
(शिरोधारा परिषेक)

6- वातशामक औषधियों से तैयार आसव आदि पिलाना।

7- पाचक, दीपक, (पाचक अग्नि को तेज करने वाली) उत्तेजक वात को शांत करने वाली तथा विरेचक (मल को बाहर निकालने वाली) औषधियों से पकाए गए घी, तेल आदि स्नेह पदार्थों का खाने-पीने वह मालिश करने के रूप में प्रयोग करना ।

8- गेहूं, तिल, अदरक, लहसुन और गुड आदि डालकर तैयार किए गए खाद पदार्थों का सेवन।

9- स्निग्ध और उष्ण औषधियों से तैयार अनेक प्रकार के एनिमा का प्रयोग।

10– रोग व परिस्थिति के अनुसार मानसिक उपचार जैसे- रोगी को डराना, एकदम चौंकाना तथा विस्मरण करवाना, जिस किसी विशेष घटना से रोगी परेशान हुआ हो, उसे भुलाने की कोशिश करना।

स्निग्ध द्रव्यों में वात की शांति के लिए तिल का तेल सबसे अधिक श्रेष्ठ है तथा अनुवासन-बस्ती (एक प्रकार का एनिमा) विशेष रूप से लाभकारी है | जैसा कि पहले कहा गया है, रात का मूल स्थान पक्वाशय (बड़ी आँत) है, अतः इसे शांत करने के लिए तो निरूह और अनुवासन बस्तीयाँ (एनीमा के दो प्रकार) सबसे उत्तम उपाय है क्योंकि यह एनिमा पक्वाशय में जल्दी प्रवेश कर सभी दूषित पदार्थों को बाहर निकाल देता है, जिससे वात का प्रशमन हो जाता है ।

★पित्त क्या होती है ★

पित्त पांच प्रकार का होता है और शरीर में पांच स्थानों में रहता है। यह एक पतला पीले रंग का और तेज़ाब की तरह गर्म द्रव्य(तरल) होता है। यदि पित्त आम युक्त होता है तो पित्त का रंग नीलापन लिये होता है और आम रहित पित्त पीला रहता है। पित्त के लक्षण (गुण ) और चिकित्सा- सूत्र का विवरण आयुर्वेद ने इस प्रकार से प्रस्तुत किया है।

सस्नेह मुष्णं तीक्ष्णं च द्रवमम्लं सरं कटु ।
विपरीत गुणैः पित्तं द्रव्यैराशु प्रशाम्यति ।।

अर्थात् पित्त तनिक चिकनाई युक्त, उष्ण, तीखा, द्रव, खट्टा, सर और कटु गुण वाला होता है। इनसे विपरीत् गुण वाले द्रव्यों के प्रयोग से पित्त का शमन होता है।

पित्त के प्रकार और कार्य :इसके 5 प्रकार व स्थान इस प्रकार हैं

(1) पाचक पित्त- आमाशय में रह कर छः रसों को पचाता है,अग्नि (जठराग्नि) के बल को बढ़ाता है और शरीर के सब पित्तों का पालन-पोषण करता हैं।

(2) रंजक पित्त- यकृत (लिवर) व तिल्ली में रह कर रस को रक्त बनाता है।

(3) साधक पित्त – हृदय में रह कर रक्षा करता है और बुद्धि व स्मरण शक्ति को बढ़ाता है।

(4) आलोचक पित्त- यह नेत्रों में रह कर देखने की शक्ति प्रदान करता है और इसी के बल से व्यक्ति को दिखाई देता है।

(5) भ्राजक पित्त- सारे शरीर और त्वचा में भ्राजक पित्त व्याप्त रह कर त्वचा की कान्ति बढ़ाता है और मालिश के तैल को सोखता है।

इन पित्तों में जो भी या जिस जिस स्थान का पित्त कुपित होगा उस उस स्थान से सम्बन्धित पित्तजन्य व्याधियां उत्पन्न हो जाएंगी।

★पित्त के लक्षण ★

✶जब पित्त कुपित होता है तब शरीर में जलन और आग की ज्वाला की आंच लगने का अनुभव होना ।

✶गर्मी लगना, खट्टी डकारें आना, पसीना बहुत आना, शरीर से दुर्गन्ध आना, जी मचलाना ।

✶घबराहट, उलटी होने की इच्छा होना या उलटी होना, मुंह का स्वाद कड़वा होना, त्वचा का सूखा होना ।

✶ फटना, लाल-लाल चकत्ते होना, अधिक प्यास लगना, मुंह सूखना, पतले दस्त लगना, आखों व पेशाब का रंग पीला होना ।

✶आंखों के सामने अन्धेरा छाना आदि लक्षण प्रकट होते हैं।

★पित्त के कारण ★

1-शारीरिक स्तर पर पित्त कुपित होने का मुख्य कारण होता है तेज़ मिर्च मसालेदार, तले हुए और उष्ण प्रकृति के पदार्थों का लगातार अधिक समय तक अति सेवन करना।

2-इसके अलावा श्रम की अधिकता, मैथुन कर्म में अधिकता, खटाई और खट्टे पदार्थों का सेवन, मादक पदार्थों का सेवन व मांसाहार का सेवन करना, खट्टा दही आदि का सेवन करना।

3- अनुचित ढंग के रहन सहन के कारण पित्त प्रकोप होता है।

4-मानसिक रूप से अधिक क्रोध करना, शोक, चिन्ता व तनाव से पीड़ित रहना आदि कारणों से शरीर में गर्मी बढ़ती है और पित्त कुपित हो जाता है। ऐसे लोग ज्यादातर पित्त प्रकोप से पीड़ित रहते हैं।

5-प्राकृतिक रूप से ग्रीष्म और शरद ऋतु में, शाम को और आधी रात के समय, युवावस्था और अन्न का पाचन होते समय पित्त कुपित रहता है।

6-वर्षा काल में पित्त संचित होता है, शरद ऋतु में कुपित होता है और हेमन्त ऋतु में शान्त रहता है।

★पित्त के उपाय★
मधुर, कड़वे, कसैले, शीतल, तरल पदार्थ, विरेचक पदार्थ, मुनक्का, केला, आंवला, परवल, ककड़ी, मिश्री, घी, दूध, पित्त पापड़ा, शतावरी, त्रिफला आदि के सेवन से पित्त प्रकोप का शमन होता है।

कफ बढ़ाने वाले पदार्थों का उचित मात्रा में सेवन करने से पित्त का शमन होता है।

★कफ क्या होती है★
पित्त की भांति कफ के विषय में विवरण देते हुए आयुर्वेद ने बताया है कि कफ भी पांच प्रकार होता है और शरीर में पांच स्थानों पर रह कर कार्य करता है। कफ का परिचय देते हुए आयुर्वेद कहता है।

गुरु शीत मृदु स्निग्ध मधुर स्थिरपिच्छिलाः ।
श्लेष्मणः प्रशमयान्ति विपरीत गुणैर्गुणाः ॥

अर्थात् कफ भारी, ठण्डा, मृदु, चिकना, मीठा, स्थिर और पिच्छिल गुण वाला होता है। इन गुणों से विपरीत गुण वाले द्रव्यों के प्रयोग से कफ का शमन होता है।

★कफ के प्रकार और कार्य :कफ के 5 प्रकार व स्थान इस प्रकार हैं★

(1) क्लेदन कफ- यह कफ आमाशय में रह कर अन्न (आहार द्रव्य) को गीला व अलग-अलग करता है।

(2) अवलम्बन कफ- रस युक्त वीर्य से यह कफ हृदय में रह कर हृदयभाग को अवलम्बन देता है।

(3) रसन कफ- यह कफ जीभ और कण्ठ में रह कर चिकनाई बनाए रखता है।

(4) स्नेहन कफ- यह कफ सभी इन्द्रियों को चिकनाई प्रदान कर उन्हें तृप्त रखता है।

(5) श्लेष्मा कफ- सभी जोड़ों में रह कर उन्हें जोड़े रख कर उन्हें अच्छी तरह रहने व काम करने की सामर्थ्य और सुविधा प्रदान करता है।

इन स्थानों में कफ के कुपित होने पर, इन स्थानों (अंगों) से सम्बन्धित कफ जन्य बीमारियां पैदा होती हैं।

★कफ प्रकोप के लक्षण ★
जब कफ कुपित होता है तब मलमूत्र, नेत्र और सारे शरीर का सफ़ेद पड़ जाना, ठण्ड अधिक लगना।

✶ भारीपन, अवसाद (डिप्रेशन), अधिक नींद आना, मुंह चिकना व मीठा रहना, अरुचि, भूख कम हो जाना।

✶ पेट भारी लगना, नींद व सुस्ती ज्यादा, शरीर व सिर में भारीपन।

✶ मुंह का स्वाद मीठा, लार गिरना, बार-बार मुंह व कण्ठ में कफ आना।

✶ मल ज्यादा व चिकना होना आदि लक्षण प्रकट होते हैं।

★कफ प्रकोप के कारण ★
1-बाल्यावस्था में, भोजन करने के बाद, प्रातःकाल और वसन्त ऋतु में कफ प्राकृतिक रूप से कुपित रहता है।

2-शीतकाल में अधिक शीतल व खटाई वाले पदार्थों का सेवन तथा अधिक समय तक ठण्ड सहन करने से कफ कुपित होता है।

3-हेमन्त ऋतु में कफ संचित होता है और प्रावृट ऋतु में शान्त रहता है।

4-दिन में सोना, श्रम न करना, आलसी दिनचर्या, अधिक मीठा व चिकना आहार लेना, भारी स्निग्ध पदार्थों का अति सेवन, चावल।

5-उड़द, गेहूं, दूध, पनीर, दूध चावल की खीर, मख्खन, घी, मांस, चरबी, मीठे फल और ठीक प्रकार से भोजन पचने से पहले फिर भोजन करना आदि कारणों से शरीर में कफ का प्रकोप होता है।

6-मानसिक रूप से लोभी मनोवृत्ति रखने से कफ का प्रकोप होता है इसीलिए लोभी-लालची और संग्रह करने का स्वभाव रखने वाला व्यक्ति प्रायः मोटा, भारी शरीर और बढ़े हुए पेट वाला होता है। ऐसे व्यक्तियों का कफ प्रायः कुपित ही रहता है।

★कफ निकालने के उपाय ★

✶ चरपरे, कसैले, रूखे व गर्म पदार्थों का सेवन करना।

✶ कफ नाशक स्वेदनक्रिया (पसीना निकालना), कफ-विरेचक (दस्त) लेना।

✶कसरत या अधिक श्रम करना।

✶वमन (उलटी) करना।

★गर्म पानी में शहद घोल कर पीना।

✶गर्म पानी पीना, त्रिफला, चना, मूग, लहसुन, प्याज, नीम, निशोथ व कुटकी आदि का सेवन करने से कफ प्रकोप का शमन होता है।

इनमें से किसी भी एक या दो या तीनों के कुपित होने से तो अस्वस्थता पैदा होती ही है, साथ ही इनकी कमी होने से भी अस्वस्थता पैदा होती है। इस विषय में संक्षिप्त रूप से जानकारी प्रस्तुत करते हैं।

वात में कमी होने पर सांस लेने में कठिनाई, घबराहट, भारीपन, सुस्ती व अर्धमूर्च्छा का अनुभव होता है।

पित्त में कमी होने पर मन्दाग्नि, ठण्डापन, आलस्य, मन में उदासी और निस्तेजता आदि लक्षण प्रकट होते हैं।

कफ का क्षय (कमी) होने पर शरीर में रूखापन, जलन, सिर खाली खाली सा लगना, जोड़ और हाथ पैर ढीले होना, अनिद्रा और शरीर दुबला होना आदि लक्षण प्रकट होते हैं।

हमारे शरीर को धारण करने वाली तीन धातुओं यानी वात पित्त और कफ की जो हमारे शरीर और स्वास्थ्य के स्तम्भ यानी खम्भे हैं जो कुपित होने पर शरीर को दूषित करने वाले हो जाते हैं। इसलिए धातु नहीं, दोष कहे जाते हैं। इन तीनों का महत्व और प्रभाव एक समान है।

इसलिए तीन खम्भों में प्रत्येक खम्भा महत्त्वपूर्ण और अनिवार्य होता है जैसे तीन टांग के स्टूल की प्रत्येक टांग महत्त्वपूर्ण और ज़रूरी होती है। एक भी टांग हटाने पर स्टूल खड़ा नहीं रहता, धराशायी हो जाता है। इसी तरह वात, पित्त और कफ- तीनों में से प्रत्येक का अपनी सामान्य स्वस्थ अवस्था में रहना शरीर को स्वस्थ रखने के लिए अनिवार्य है। ये स्वस्थ सामान्य अवस्था में रहते हैं तो शरीर को धारण किये रहते हैं।

इसलिए धातु कहे जाते हैं लेकिन कम ज्यादा होने पर ये ही रक्षक के बजाय भक्षक बन जाते हैं यानी शरीर को स्वस्थ न रख कर रोगी बना देते है। शरीर को दूषित कर देते हैं। इसलिए दोष कहलाने लगते हैं। अगर ये तीनों कुपित हो जाएं तो ‘त्रिदोष’ कहे जाते हैं। यह अवस्था बहुत कष्ट पूर्ण होती है। तीनों दोष कुपित होने को ‘सन्निपात (त्रिदोष) कहते हैं।

इन तीनों के लक्षण ध्यान में रखें। कोई व्याधि हो तो उसके लक्षणों पर ध्यान दे कर यह समझ लें कि ये किस दोष के लक्षण हैं। जिस दोष के लक्षणों से मिलते जुलते हों उस दोष को कुपित समझें और उस दोष का शमन करने वाला आहार-विहार करें तो वह कुपित दोष शान्त हो जाएगा और रोग में भी आराम होने लगेगा। इस ज्ञान से लाभ उठाएं यानी तदनुसार अमल करके अपने शरीर व स्वास्थ्य को स्वस्थ और निरोग रखें ताकि बीमार होने की नौबत ही न आये।

आशा है अब पाठक वात, पित्त और कफ के विषय में समझ गये होंगे। आप भी आयुर्वेद मूल सिद्धांत को समझें और आयुर्वेद अपनाएं।