गाँवों का जीवन झुलस रहा है

राघवेन्द्र कुमार त्रिपाठी ‘राघव’-


वास्तव में भारत गाँवों में ही बसता है। शान्ति, सहिष्णुता, अहिंसा, नैतिक मूल्य और संस्कृति का दर्शन गाँवों के अतिरिक्त और कहाँ होगा? अफ़सोस गाँव बदल गए हैं। अब गाँव में भी पश्चिमी बयार बहने लगी है। गाँवों के दर्शन के बिना गाँव की बात बेमानी ही होगी। पहले गाँव का दर्शन कर ही लेते हैं।

मेरा गाँव मेरा देश मेरा ये वतन,

तुझपे निसार है मेरा तन मेरा मन ।

ऐसा ही होता है गाँव! जहाँ हर आदमी के दिल मे प्रेम हिलोरें मारता है। जहाँ इंसानी ज़ज़्बात खुलकर खेलते हैं। हर कोई एक दूसरे के सुख-दुःख में भागीदार होता है। पड़ोसी के भूखे होने पर पड़ोसी बेचैन हो जाता है। जब तक भूखे को भोजन न करा दें, गाँव के लोग अन्न का दाना तक ग्रहण नहीं करते हैं। तभी तो समृद्धि की वर्षा होती है हमारे गाँव में ।

किन्तु जबसे लोग शहरों में जाकर बसने लगे, विदेश जाने लगे, गाँव की रंगत ही उड़ गयी। क्योंकि जब वो वापस आये तो न जाने कौन सी मानसिकता साथ उठा लाये? अब तो उनमें परायेपन की बू आने लगी है। अब सर्दी की शाम में लोग अलाव के पास कम ही बैठते हैं। बुजुर्गों की बातें अब उन्हें ढोंग लगने लगी हैं और हाँ! अब तो वो अपने बच्चों को भी घर से बाहर निकलने से रोकने लगे हैं। कहते हैं कि अगर इन सब के बीच रहोगे तो पिछड़ जाओगे; गवांर के गवांर ही रह जाओगे। क्या गाँव के लोग वाकई पिछड़ रहें है? क्या वो मूर्ख हैं? आज प्रत्येक गाँववासी इस प्रश्न का उत्तर खोज रहा है। लेकिन हाय रे किस्मत! उत्तर की जगह लाठियां मिलती हैं। ये सब कैसे और क्यों हो गया पता नहीं? इसका किसी के पास उत्तर नहीं है या ये कहें कि कोई उत्तर खोजना नहीं चाहता!

जिस गाँव में १९८३ में बिजली आ गई हो, जहाँ १०००० की आबादी हो, ३३% लोग नौकरी पेशा वाले हों, गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन करने वाले लोग महज़ १८ फ़ीसदी हों, वहाँ आज बेरोजगारी, लाचारी, मक्कारी और तो और सामाजिक अपराधों के बढ़ने का क्या कारण है? ये सिर्फ मेरे गाँव का ही नहीं अपितु पूरे भारत वर्ष का हाल है आज गांवों में बुनियादी सुविधाएं नहीं है। जो पहले थी आज खत्म हो गयी हैं या लुप्त प्राय हैं। बदहाल सड़कें, बिजली के जर्जर खम्भे, खम्भों पर झूलते तार, सड़ांध मारती नालियाँ, ओफ़! क्या हाल हो गया है गाँवों का? अब गाँव में लोग एक दूसरे की मदद भी नहीं करते हैं। वो तो ईर्ष्या में जलते हैं। यह सब कैसे हो गया कुछ पता नहीं ?

हद तो तब हो गयी जब एक दिन एक शराबी लड़के ने अपनी बूढ़ी अंधी माँ को धक्के मार कर घर से निकाल दिया और कहा तुमने मेरे साथ किया क्या है, सिर्फ पैदा ही तो किया है। बच्चे तो जानवर भी पैदा करते हैं। आज ग्रामीण संस्कृति किस हाल में आ गयी है, कहीं ये हमारे मरते संस्कारों की निशानी तो नहीं! वैसे भी शहरो में बड़े-बड़े पाश्चात्य संस्कृति से प्रेरित वृद्धाश्रम खुल गए हैं। गाँववाले कहाँ पीछे रहते तो बुजुर्गो पर अत्याचार ही करने लगे।

कहने को तो आज भी भारत गाँवों में बसता है। ग्राम देवता हैं। लेकिन देवताओं के घर में कहीं ये सब होता है, जो आज हो रहा है? कहीं मंदिर में शराब पी जाती है? खैर! छोड़ो इन सब बातों को क्या लेना-देना हमें! इन सब बातों को सोचने का वक्त किसके पास है।

जियो….. जैसे हम जी रहे हैं…… अपने गाँव में ।

याद रहे भारत माता गाँव में ही रहती है। गाँवों के कल्याण के बगैर देश का कल्याण असम्भव है। महात्मा गाँधी जी ने कहा था भारत की आत्मा गाँव में रहती है। प्रकृति के सुकुमार कवि सुमित्रा नंदन पंत जी कहते हैं कि हे ग्रामदेवता! नमस्कार। सोने चाँदी से नहीं किन्तु तुमने मिट्टी से किया प्यार। हे ग्रामदेवता! नमस्कार। किन्तु दुर्भाग्य! समय के चक्र के साथ शहर बढ़ते गये और गाँव लुटते चले गये। बेचारे गाँव शहर बनने की कोशिश में शहरों की नक़्ल करने लगे। शहर कहाँ पीछे रहने वाले थे, उन्हें तो मौका मिला था गाँवों के शोषण करने का। जहाँ उत्पीड़न और शोषण होता हो भला वहाँ कौन रहना चाहेगा? आज ग्राम देवता कातर दृष्टि से हम सबको निहार रहे हैं। इस उम्मीद के साथ कि ईश्वर ने गाँव बनाया और मनुष्य ने शहर। गाँव मे खेत हैं, खलिहान हैं, नदियाँ हैं, तालाब हैं, बाग-बगीचे हैं। पक्षियों का कलरव है, रंभाती गाये हैं, गाँवों में प्रकृति संपूर्ण रूप से बसती है। क्यों न हम-सब गाँवों की ओर चलें ?

हम यह भी सोच सकते हैं कि गाँव की समस्याओं को सुलझाने मे हमे क्या मिलने वाला है? शहर तो स्वर्गिक सुख का आभास कराने वाले हैं। लेकिन गाँव गन्दगी का लबादा ओढ़े नर्क का अहसास कराते हैं। गाँवों में भी बदलाव की बयार चली है और साथ ही ग्रामीण अर्थव्यवस्था में परिवर्तन भी आया है। लोगों के रहन-सहन में परवर्तन हुआ है। गाँव का युवा परिश्रम के बूते शैक्षिक क्षेत्र में आगे आ रहा है। लगन और निष्ठा के बल पर प्रशासनिक क्षेत्र में बढ़ रहा है।

याद रहे कि भगवान श्रीकृष्ण गोकुल गाँव के ही थे। वह उस समय की ग्रामीण समस्याओं को लेकर काफी मुखर भी रहे। मामला चाहें स्वच्छ पानी का हो या फिर ग्रामीणों की आजीविका का। समाज के हितों के लिए लड़ने वाले को समाज ने भगवान बना दिया। इसी तरह भगवान राम ने भी अपने वनवास का लम्बा समय ग्रामीणो की समस्याओं के उन्मूलन को समर्पित कर दिया। चाहें पंचवटी का जनजातीय जीवन हो या फिर दण्डकारण्य की विभीषिका; श्रीराम ने वहाँ के जीवन को सामान्य करने का हरसम्भव प्रयास किया। पत्रकारों के प्रेरणाश्रोत गणेश शंकर विद्यार्थी ने सबका ध्यान आकर्षित करते हुए कहा था कि राष्ट्र महलों में नहीं रहता है। राष्ट्र के निवास स्थल में वे अगणित झोपड़े हैं जो गाँवों और पुरवों में फैले हुए आकाश के देदीप्यमान सूर्य और शीतलचंद्र और तारागण से प्रकृति का संदेश लेते हैं। इसीलिए राष्ट्र का मंगल और उसकी जड़ उस समय तक मजबूत नहीं हो सकती, जब तक कि अगणित लहलहाते पौधों की जड़ो मे जीवन का जल नहीं सींचा जाता । भारतवर्ष गाँवों का देश है। यहाँ की 65 प्रतिशत जनता गाँवों मे रहती है। किन्तु दुःख की बात है कि गाँवों में आज भी अभूतपूर्व पिछड़ापन है। दुनिया की एक तिहाई ऐसी जनसंख्या है,  जो पर्याप्त मात्रा में पानी को तरसती है। बीस करोड़ से ज्यादा लोग विकास परियोजनाओं से कोसों दूर हैं।  स्वास्थ्य सेवाओं का बुरा हाल है। यदि गाँवों मे झोलाछाप चिकित्सक न हों तो सरकारी हॉस्पिटल की स्थिति बेहद दयनीय हो जाती है। ग्रामीणभारत में आज भी सबसे ज्यादा मौतें बुनियादी सुविधाओं के अभाव मे ही होती हैं। अभाव और आजीविका के ख़ातिर गाँव के लोग शहरों की ओर भागने लगे। शहरों से वह ढेर सारे पैसे और ढेर सारी नयी रवायतें लेकर आने लगे। इन्हीं रवायतों में एक ऐसी भी आयी जिसने ग्रामीण भारत की आत्मा को ही बींध डाला। लोग एकाकी रहना पसन्द करने लगे। माँ-बाप तो मानो बोझ ही हो गये।  ऐसे में देश और समाज के खातिर सोचने का आख़िर वक्त ही किसे है? आज माँ भारती एकटक युवा और देशप्रेमियों की ओर निहार रही हैं, इस उम्मीद के साथ कि शायद! कोई उसकी असहनीय पीड़ा को समझे और गाँवों में वही बहारें लाने के लिए एक नयी शुरुआत करे। कोख में मरती हुई बेटियों की आवाज सुने और घर के भीतर दमन के पाटों मे पिसती हुई नारीमर्यादा का बदन उघड़ने से बचाये। गाँवों की मौलिक पहचान खेत और खलिहान जब तक ख़ौफ़ और शरमायादारी मे जियेंगे तब तक गाँवों से पलायन जारी ही रहेगा। गाँवों को बचाने के लिए पहले किसानों को बचाना पड़ेगा और किसान राजनैतिक बयानबाज़ी से सरसब्ज़ नहीं रहने वाले। यहाँ पर अपनी एक कविता की कुछ पंक्तियों से शहीद आत्माओं की पुकार आपको सुनाता हूँ—

उपजाकर अन्न दिया जिसने, वह कृषक लगाता फाँसी हैं ।

भूख मिटाता जो समाज की, घर उसके आज उदासी है ।

राजनीति की चकाचौंध मे, गुम हो गया किसान ।

हमारा होता है अपमान, देश का घटता है जब मान ।

उत्तम खेती आज देखिए, मार्ग मौत का बनी हुई ।

फ़सलों की पत्ती–पत्ती देखो, कृषक रक्त में सनी हुई ।

आकण्ठ ऋणी धरती सुत, लेते हैं अपनी ही जान ।

हमारा होता है अपमान, देश का घटता है जब मान ।

सोचिए! ऐसी स्थिति में क्या परिवार के साथ इंसाफ़ किया जा सकता है? क्या ग्रामीण अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दिला सकते हैं? नहीं न ! गाँव छोड़कर शहर ही जायेगा, रोटी-रोजी की तलाश मे। गाँव उनकी बाट जोह रहे हैं, जो उनके लाड़लों को वापस बुलाकर उनके सीने को ठंडक पहुंचाएँ। धन और उत्तम भविष्य की मृगमरीचिका से खिंचता; गाँव से दूर गया ग्रामीण; मन से कभी गाँव निकाल ही नहीं पाता। सरलता, सहजता, अपनत्व और छल–प्रपञ्च की प्रतिछाया से भी दूर गंवई जीवन उसे रह–रह कर वापस पुकारता ही रहता है, पुकारता ही रहता है।