
‘अथर्ववेद’ की एक पंक्ति है, जिसका अर्थ है– जो कुछ भी सम्यक् रूपेण लेखन किया जाता है, वह द्रष्टव्य (‘दृष्टव्य’ अशुद्ध है)/देखने-योग्य/देखनेयोग्य/देखने के योग्य (‘देखने योग्य’ अशुद्ध है।) है। ऐसे में, यहाँ यह एक प्रश्न जन्म लेता है– जब ‘अथर्ववेद-काल’ में लेखन-कर्म विद्यमान था तब कौन-सी लिपि प्रयोग की जाती थी?
भाषाविज्ञानियों के अनुसार, ‘ब्राह्मी लिपि’ प्राचीनतम लिपि है और भारतीय भाषाओं में अन्य लिपियाँ ब्राह्मी से ही विकसित हुई हैं। हाँ, प्राचीनकाल में ब्राह्मी लिपि के अतिरिक्त एक अन्य लिपि भी प्रचलन में थी, जो ‘खरोष्ठी’ के नाम से अभिहित (जानी जाती है।) है। उस खरोष्ठी लिपि में दायीं ओर से बायीं ओर (उर्दू की तरह) लिखा जाता था। वहीं ब्राह्मी लिपि तीन भागों में बँट गयी थी :—- १- उत्तरी लिपि २- दक्षिणी लिपि ३- पालि-देवनागरी लिपि (‘पाली’ अशुद्ध है।) प्रथम वर्ग के अन्तर्गत ‘तमिल’; द्वितीय वर्ग के अन्तर्गत ‘तेलुगू’ और ‘कन्नड़’ लिपियाँ तथा तृतीय के वर्ग के अन्तर्गत सिंहल द्वीप और जावा की भाषाएँ आती हैं।
(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; १३ अगस्त, २०२१ ईसवी।)