डॉ० पृथ्वीनाथ पाण्डेय की पाठशाला : भाषा-संस्कार विकसित करें

प्रतिभाशाली विद्यार्थी वही होता है, जो शब्दानुशासन को सम्यक् रूपेण धारण करता हो। जिसके पास विद्या होती है, वही विद्यार्थी कहलाने का अधिकारी होता है; क्योंकि विद्यार्थी का मूल आभूषण ‘विनयशीलता’ है और विद्या ही एक ऐसा माध्यम है, जिससे विद्यार्थी विनयशील बनता है। इसी विनम्रता से विद्यार्थी अभियोग्यता को धारण करता है। अभियोग्यता से ही विद्यार्थी आत्मिक और भौतिक सुख अर्जित करता है। हाँ, इन समस्त विभूतियों के मूल में विद्या अर्थात् शब्द ही है, इसलिए शब्द-शुचिता की ग्रहणशीलता के प्रति हमारे विद्यार्थियों को जागरूक रहना होगा। व्यवहार की दृष्टि से कौन-सा शब्द उपयोगी है और कौन-सा अनुपयोगी, इसके प्रति सजग और सतर्क दृष्टि का परिचय देना होगा।

इधर, कुछ वर्षों से यह तीव्रता के साथ देखा जा रहा है कि हमारे विद्यार्थी प्रयोगस्तर पर उन्हीं शब्दों का व्यवहार करते आ रहे हैं, जो वर्षों से प्रचलन में हैं; किन्तु परीक्षा की दृष्टि से उनका प्रयोग विद्यार्थियों के भविष्य के लिए घातक है। ऐसे ही विद्यार्थी जब अध्यापक के रूप में नियुक्ति पा जाते हैं तब वे अपने विद्यार्थियों को अध्यापन करते समय भी उन्हीं शब्दों का ज्ञान कराते हैं, जो व्याकरण-सम्मत नहीं होते। यदि अपने विद्यार्थी-जीवन में ही आज के वैसे अध्यापक प्रामाणिक शब्दबोध कर लिये होते तो हमारी नयी पीढ़ी की एक दीर्घ परम्परा विषाक्त नहीं होती। इसका सुस्पष्ट प्रभाव हम आये-दिन आयोजित करायी जा रही प्रतियोगितात्मक और विश्वविद्यालयस्तरीय परीक्षाओं के प्रश्नपत्रों में सहजतापूर्वक देखकर असहज हो जाते हैं। संघ लोकसेवा आयोग, उत्तरप्रदेश लोकसेवा आयोग, कर्मचारी चयन आयोग, बैंकिंग भर्ती सेवा, विश्वविद्यालयस्तरीय परीक्षाओं के प्रश्नपत्रों में भविष्यघातक अशुद्धियों को पढ़ते-समझते आ रहे हैं। इसका सीधा प्रभाव हमारे विद्यार्थियों के भविष्य पर पड़ता है। इसे ऐसे समझें :– एक शब्द है, ‘आरोपी’। सार्वजनिक जीवन में इसका प्रचलन ‘जिस पर आरोप लगाया जाये’ के अर्थ में है, जबकि इसका अर्थ है, ‘जो आरोप लगाता है’। इस आरोपी के स्थान पर ‘आरोपित’ का प्रयोग होना चाहिए। अब परीक्षाओं के प्रश्नपत्रों में भी यह अशुद्ध और अनुपयुक्त शब्द प्रयोग होने लगा है। देशभर में जितने भी छात्रावास, लॉज आदिक हैं, वहाँ अधिकतर विद्यार्थी ‘रेडियो’ के माध्यम से आकाशवाणी और निजी चैनलों के उद्घोषकों-सूत्रधारों से सुनते हैं :– अब हम आपको अमुक फ़िल्म का ‘गाना’ सुना रहे हैं। इस वाक्य में प्रयुक्त शब्द ‘गाना’ अशुद्ध और अनुपयुक्त है। ऐसा इसलिए कि यहाँ जिस ‘गाना’ शब्द का ‘संज्ञा’ के रूप में प्रयोग किया गया है, वह वास्तव में, ‘क्रिया’ शब्द है। यहाँ उद्घोषकों को कहना चाहिए :– अब हम आपको अमुक फ़िल्म का ‘गीत’ सुना रहे हैं। यही कारण है कि शुद्ध शब्द है :– गीत गाना, न कि गाना गाना। अब इसका दुष्प्रभाव यह है कि हमारा विद्यार्थी ‘गाना’ को संज्ञा के रूप में प्रयोग करता आ रहा है। इनके अतिरिक्त समाचारवाचक प्रत्यार्पण, धाराशाही, तुषारापात, हस्ताक्षेप, सामाग्री, भारी संख्या/मात्रा, धारा ३७० आदिक अशुद्ध शब्दों का प्रयोग करते आ रहे हैं, जिनसे आपको बचना होगा और क्रमश: प्रत्यर्पण, धराशायी, तुषारपात, हस्तक्षेप, सामग्री, बड़ी संख्या , अनुच्छेद ३७०– इन शुद्ध शब्दों को व्यवहार में लाना होगा। हमारे विद्यार्थियों के पास एक मानक कोश होना चाहिए, जो उनका पथप्रदर्शक सिद्ध होगा। ————————————-

विचारणीय प्रमुख बातें :–

★ भाषा व्यक्तित्व का संवर्द्धन करती है।

★ शुद्ध उच्चारण, विशेषत: ‘श’, और ‘ष’; ‘श’ और ‘स’; ‘ड़’ और ‘ण’; ‘च्छ’ और छ’; ‘छ’ और ‘क्ष’; ‘ग्य’ और ‘ज्ञ’, ‘रि’ और ‘ऋ’, ‘न्’ और ‘न’; ‘अँ’ और ‘अं’; ‘म्ह’ और ‘ह्म’; ‘न्ह’ और ‘ह्न’; ‘हृ’ और ‘ह्र’ आदिक वर्णों के शुद्ध उच्चारण के प्रति जागरूक रहना होगा, अन्यथा साक्षात् परीक्षा में सफलता सन्दिग्ध रहेगी।

★ मौलिक भाषा और लिखित भाषा का सम्यक् बोध करना होगा।

★ मीडियातन्त्र-द्वारा प्रसारित अशुद्ध शब्दों से प्रभावित न हों।

★ अग्राह्य-ग्राह्य शब्दों के परीक्षण के लिए प्रत्येक विद्यार्थी के पास मानक हिन्दी-हिन्दी शब्दकोश होना चाहिए।

(सर्वाधिकार सुरक्षित : डॉ० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; ७ दिसम्बर, २०१९ ईसवी)